भक्तों के भक्ति भरे
कीर्तन के चाहक।
तिल्लै क्षेत्र के प्रेमी निवासी।
दाण्डव मूर्ति शिव,
जिनके सिरको
कमलासन के ब्रह्मा न दर्शन कर सके।
ऐसे श्वेत छत्रधारी शिव की कीर्ति
साधारण कवि कैसे कर सकते?
वर्णनातीत है ही।
हे कांचीपुर के एकनाथ शिव !
तू तो मनुष्य मन में
एक के बाद एक चाह को बढ़ा रहा है। ।
वह मनुष्य के अंत तक बढ़ती रहती है।
पहले भूख ,भूख मिटाने नाना प्रकार के भोजन।
भूख मिट गयी तो स्वर्ण की चाह।
कांचन के बाद कामिनी की चाह
कितनी इच्छाएँ ! क्यों ईश्वर ?
मेरी गलतियाँ इस जीवन में अधिक !
तेरी कीर्ति को पढ़ा नहीं ,
तेरे पंचाक्षर मंत्र को न जपा।
न प्रार्थना की ,
न सोचा न विचारा।
मेरी सभी गलतियाँ
और अपराधों को माफ कर देना।
2 .
जन्म लेते समय न लाते कुछ भी।
मरते समय न ले जाते कुछ भी।
जो कुछ इस जान ें मिला वह ईश्वर की देन।
फिर भी उन्हें दान न देते लोग !
हे कांचीपुर के शिव !
इनके बारें में क्या कहूँ मैं ?
3 .हे शिव ! मैंने कई जीवों को मारकर
उन्हें खाया भी !और जीवों को भी सताया है.
अपने पापों के प्रायश्चित के लिए आया हूँ।
हे कांची के एकंबेश्वर !तेरे सामने खड़ा हूँ !
मेरे पापों को माफ कर मुक्ति देना !
तिल्लै क्षेत्र के प्रेमी निवासी।
दाण्डव मूर्ति शिव,
जिनके सिरको
कमलासन के ब्रह्मा न दर्शन कर सके।
ऐसे श्वेत छत्रधारी शिव की कीर्ति
साधारण कवि कैसे कर सकते?
वर्णनातीत है ही।
हे कांचीपुर के एकनाथ शिव !
तू तो मनुष्य मन में
एक के बाद एक चाह को बढ़ा रहा है। ।
वह मनुष्य के अंत तक बढ़ती रहती है।
पहले भूख ,भूख मिटाने नाना प्रकार के भोजन।
भूख मिट गयी तो स्वर्ण की चाह।
कांचन के बाद कामिनी की चाह
कितनी इच्छाएँ ! क्यों ईश्वर ?
मेरी गलतियाँ इस जीवन में अधिक !
तेरी कीर्ति को पढ़ा नहीं ,
तेरे पंचाक्षर मंत्र को न जपा।
न प्रार्थना की ,
न सोचा न विचारा।
मेरी सभी गलतियाँ
और अपराधों को माफ कर देना।
2 .
जन्म लेते समय न लाते कुछ भी।
मरते समय न ले जाते कुछ भी।
जो कुछ इस जान ें मिला वह ईश्वर की देन।
फिर भी उन्हें दान न देते लोग !
हे कांचीपुर के शिव !
इनके बारें में क्या कहूँ मैं ?
3 .हे शिव ! मैंने कई जीवों को मारकर
उन्हें खाया भी !और जीवों को भी सताया है.
अपने पापों के प्रायश्चित के लिए आया हूँ।
हे कांची के एकंबेश्वर !तेरे सामने खड़ा हूँ !
मेरे पापों को माफ कर मुक्ति देना !
No comments:
Post a Comment