,தைவ ,ஆர்ஷ் ,பிரஜாபத்திய ,ஆசூர் ,கந்தர்வ,ராக்ஷச ,பைஷாச்ச .இதில் முதல் ஐந்து மேலே சொல்லப்பட்ட இடுகையில் விளக்கப்பட்டுள்ளது .இறுதி மூன்று பற்றி என் கருத்தை வெளியிடுகிறேன் .(காந்தர்வம் ,ராக்ஷசம் ,பைஷாச்சம் .
காந்தர்வ் விவாஹம் பற்றி மனுசுமிரிதி இவ்வாறு சொல்கிறது .
ஒரு ஆணும் பெண்ணும் விரும்பி திருமணத்திற்கு முன் கணவன் மனைவியாக வாழ்தல் காந்தர்வ திருமணம்.
சகுந்தலா துஷ்யந்தன் திருமணம் காந்தர்வ முறை திருமணம் ஆகும். வேட்டைக்குச் சென்ற துஷ்யந்தன் விஷ்வாமித்திர முனி ,மேனகைக்குப் பிறந்த சகுந்தலாவை கன்வ ரிஷி ஆஷ்ரமத்தில் சந்திக்கிறான்.இருவரும் காதல்வசப்பட்டு உடலுறவும் கொள்கின்றனர். கண்வ ரிஷி இந்த திருமணத்தை ஒப்புக்கொள்கிறார்.
அதனால் பரதன் பிறக்கிறான். இந்த முறை திருமணம் இப்பொழுது அதிகரித்து வருகிறது. வேலைகிடைத்து ஒருவரை ஒருவர் அலுவலகத்தில் சந்தித்து இவ்வாறன விவாஹம் செய்கின்றனர். பெற்றோர்களும் வேறு வழியின்றி சம்மதிக்கின்றனர். காதல் நிகழ்ச்சி அதனால் உடன் உண்டாகும் திருமணம் பொதுவாக நடக்கிறது.
ராக்ஷச திருமணம் ;--பெண் விரும்பாவிட்டாலும் பெண்வீட்டாரை மிரட்டி ,அடித்து ,கொன்று பெண்ணை கடத்தி கட்டாயத் திருமணம் செய்துகொள்ளுதல் ராக்ஷசத் திருமணமாகும்.
புராணக்கதைகள் ,ராஜா கதைகளிலும் இன்று எப்பொழுதாவது இவ்வாறன திருமணங்கள் நடக்கின்றன.
பிசாசுத் திருமணம் :--இது மிகவும் கீழ்த்தரமான விவாஹமாகும்.
பெண்ணின் ஒப்புதல் இல்லாமல் ஏமாற்றி கட்டாய உடலுறவு கொள்ளுதல். முற்றிலும் பெண்ணை வஞ்சித்து விடுதல்.
by योगेन्द्र जोशी in कर्मकांड, धर्म, प्राचीन भारत, मनुस्मृति, Manusmriti, religion, rituals टैग्स:मनु, मनुस्मृति, विवाह के प्रकार, हिंदू रीतिरिवाज, Hindu customs, Manu, Manusmriti, types of marriage
अपनी पिछली पोस्टों (14 जनवरी तथा 28 जनवरी) धर्म एवं कर्मकांड संबंधी हिंदुओं के प्राचीन ग्रंथमनुस्मृति में वर्णित विवाह के आठ प्रकारों – ब्राह्म, दैव, आर्ष, प्राजापत्य, आसुर, गान्धर्व, राक्षस, और पैशाच – का उल्लेख किया था । इनमें से प्रथम पांच की व्याख्या उपर्युक्त पोस्टों में की गई ।अंतिम तीन (गान्धर्व, राक्षस, एवं पैशाच) के बारे में आगे अपना कथ्य प्रस्तुत कर रहा हूं । गांधर्व विवाह के बारे में मनुस्मृति का कथन यों है:
इच्छयाऽअन्योन्यसंयोगः कन्यायाश्च वरस्य च ।
गांधर्वः स तु विज्ञेयो मैथुन्यः कामसम्भवः ॥32॥
(मनुस्मृति, अध्याय तीन)
(कन्यायाः च वरस्य च इच्छया अन्योन्य-संयोगः काम-सम्भवः मैथुन्यः स तु गांधर्वः विज्ञेयः ।)
अर्थ - कन्या एवं वर की इच्छा और परस्पर सहमति से स्थापित संबंध, जो शारीरिक संसर्ग तक पहुंच सकते हैं, की परिणति के रूप में हुए विवाह को ‘गांधर्व’ विवाह की संज्ञा दी गई है ।
गांधर्व विवाह का एक उल्लेख्य उदाहरण मुझे शकुंतला-दुष्यंत की पौराणिक कथा में मिलता है । उस कथा में आखेट के लिए गए राजा दुष्यंत की दृष्टि वन में मेनका-विश्वामित्र की पुत्री और कण्व ऋषि के आश्रम में पल रही युवा शकुंतला पर पड़ती है । वे उसके प्रति आकर्षित होते हैं, दोनों के बीच वार्तालाप होता है, निकटता बढ़ती है, जिसकी परिणति शारीरिक संबंध स्थापना में होती है । वे दोनों परस्पर विवाह-संबध में बंध जाते हैं, जिसे कण्व ऋषि की स्वीकृति मिलती है । उसी संबंध से राजा भरत का जन्म होता है । मेरे मत में गांधर्व विवाह वस्तुतः प्रेम विवाह है, जो वर्तमान काल में युवक-युवतियों के बीच लोकप्रिय होता जा रहा है । दरअसल आज के युवाओं को पढ़ाई एवं तत्पश्चात नौकरी-पेशे के समय परस्पर मिलने-जुलने एवं घूमने-फिरने की अधिक स्वतंत्रता मिलने लगी है । माता-पिताओं ने भी वैचारिक खुलापन अपनाना आरंभ कर दिया है । अतः प्रेम-प्रसंग एवं तज्जन्य विवाह सामान्य होते जा रहे हैं ।
राक्षस विवाह को यों परिभाषित किया गया है:
हत्वा छित्वा च भित्वा च क्रोशन्तीं रुदन्तीं गृहात् ।
प्रसह्य कन्याहरणं राक्षसो विधिरुच्यते ॥33॥
(यथा पूर्वोक्त)
(हत्वा छित्वा च भित्वा च प्रसह्य गृहात् क्रोशन्तीम् रुदन्तीम् कन्या-हरणम् राक्षसः विधिः उच्यते ।)
अर्थ - कन्यापक्ष के निकट संबंधियों, मित्रों, सुहृदों आदि को डरा-धमका करके, आहत करके, अथवा उनकी हत्या करके रोती-चीखती-चिल्लाती कन्या घर से जबरन उठाकर ले जाना और विवाह करना राक्षस विधि का विवाह कहलाता है ।
पौराणिक कथाओं में ऐसे उदाहरण मिल जाएंगे हैं । प्राचीन काल में राजा-महाराजा जब किसी युवती के प्रति आकर्षित होते थे तो उसे विवाह के लिए प्रेरित करते थे; न मानने पर जोर-जबरदस्ती उठा ले जाते थे । आज भी कई युवक एक-तरफा प्रेम में पड़कर इस विधि से युवतियों के साथ दांपत्य-संबंध बना लेते हैं ।
सुप्तां मत्तां प्रमत्तां वा रहो यत्रोपगच्छति ।
सः पापिष्ठो विवाहानां पैशाचश्चाष्टमो९धमः ॥34॥
(यथा पूर्वोक्त)
(यत्र सुप्ताम् मत्ताम् प्रमत्ताम् वा रहः उप-गच्छति सः विवाहानाम् अष्टमः पापिष्ठः अधमः पैशाचः च ।)
अर्थ - जब कोई कन्या सोई हो, भटकी हो, नशे की हालत में हो, अथवा सुरक्षा के प्रति असावधान हो, तब यदि कोई उसके साथ शारीरिक संबंध बनाकर अथवा अन्यथा विवाह कर ले तो उसे निकृष्टतम श्रेणी का ‘पैशाच’ विवाह कहा जाता है ।
पैशाच विवाह को निकृष्ट कोटि का कहा गया है । राक्षस विवाह में कन्यापक्ष के लोगों को डरा-धमकाकर या मार-पीटकर कन्या को विवाह के लिए विवश किया जाता है, किंतु उसके साथ दुष्कर्म से बचा जाता है । लेकिन पैशाच में कन्या के साथ धोखे से शारीरिक संबंध बनाकर उसे मजबूर किया जाता है । दूसरे शब्दों में यह वस्तुतः दुष्कर्म पर आधारित है । आजकल कभी-कभी ऐसे मामले प्रकाश आ जाते हैं, जिसमें दुष्कर्म कर चुका व्यक्ति भुक्तभोगी के साथ विवाह कर लेता है । वह कानून से बचने के लिए अथवा आत्मग्लानि के अधीन ऐसा कर सकता है । – योगेन्द्र जोशी
मनुस्मृति के अनुसार विवाह के आठ प्रकार – ब्राह्म, दैव, आर्ष आदि (2)
by योगेन्द्र जोशी in कर्मकांड, धर्म, मनुस्मृति, लोकव्यवहार, संस्कृत-साहित्य, Manusmriti, religion,rituals, Sanskrit Literature टैग्स: मनु, मनुस्मृति, विवाह के प्रकार, हिंदू रीतिरिवाज, Hindu customs, Manu, Manusmriti, types of marriage
अपनी पिछली पोस्ट (14 जनवरी) में मैंने इस बात का उल्लेख किया था कि धार्मिक कर्मकांडों एवं सामाजिक दायित्वों से संबंधित हिंदू ग्रंथ, मनुस्मृति, में आठ प्रकार के विवाहों का जिक्र है: ब्राह्म, दैव, आर्ष, प्राजापत्य, आसुर, गान्धर्व, राक्षस, और पैशाच । इनमें से ब्राह्म तथा दैव के बारे में उक्त पोस्ट में ही संक्षिप्त टिप्पणी की गई थी । यहां अगले तीन प्रकारों, आर्ष, प्राजापत्य एवं आसुर, को परिभाषित किया जा रहा है:
एकं गोमिथुनं द्वे वा वरादादाय धर्मतः ।
कन्याप्रदानं विधिवदार्षो धर्मः सः उच्यते ॥29॥
(मनुस्मृति, अध्याय तीन)
(एकम् गोमिथुनम् द्वे वा वरात् आदाय धर्मतः विधिवत् कन्या-प्रदानम् सः धर्मः आर्षः उच्यते ।)
ப்ராஹ்மா ,தைவ திருமiண முறையில் மணமகன் அன்பளிப்பை பெறுகிறான்.ஆனால் இதற்கு நேர்மாறாக ஆர்ஷ் திருமண முறையில் மணமகள் அன்பளிப்பு ஏற்கிறாள்.
अर्थ - गाय-बैल के एक जोड़े को अथवा दो गायों या बैलों को धार्मिक कृत्य के लिए वर से स्वीकारते हुए समुचित विधि से किए गए कन्यादान को धर्मयुक्त ‘आर्ष’ विवाह कहा जाता है
ब्राह्म तथा दैव विवाह में वर को पूजते हुए आभूषण आदि भेंट किये जाते हैं, किंतु उसके विपरीत आर्ष में कन्यापक्ष वर से भेंट-स्वरूप गाय-बैल ग्रहण करता है । हां, उसका पर्याप्त सम्मान करते हुए कन्या प्रदान की जाती है । यहां कहे गये ‘धार्मिक कृत्य के लिए’ शब्दों का अर्थ स्पष्ट नहीं है, अंदाजा ही लगाया जा सकता है । ‘समुचित विधि’ के अर्थ कदाचित यह होंगे कि परंपराओं के अनुरूप पूजा-पाठ संपन्न करते हुए वर को सम्मानित किया जाए । कदाचित उसे भेंट भी दी जाती हो । प्राचीन काल में भारतीय समाज कृषि पर आधारित था, जिसमें गाय-बैलों की निर्विवाद उपयोगिता होती थी । वर्तमान काल में गाय-बैलों की वैसी उपयोगिता रह नहीं गई है । अतः ठीक-ठीक इस रूप में आर्ष विवाह देखने को नहीं मिल सकता है । वर पक्ष से धन या अन्य वस्तुएं स्वीकारते हुए कन्या अर्पित करने की प्रथा कहीं-कहीं प्रचलित है । उसको आधुनिक आर्ष विवाह कहा जा सकता है ।
प्राजापत्य विवाह के बारे में मनुस्मृति में यह श्लोक उपलब्ध हैः
सहोभौ चरतां धर्ममिति वाचाऽनुभाष्य च ।
कन्याप्रदानमभ्यर्च्य प्राजापत्यो विधि स्मृतः ॥30॥
(यथा पूर्वोक्त)
(सह उभौ धर्मम् चरताम् इति वाचा अनुभाष्य अभि-अर्च्य च कन्या-प्रदानम् प्राजापत्यः विधिः स्मृतः ।)
திருமணத்தில் விருப்பமுள்ள ஆணையும் பெண்ணையும் மணமகன் -மணமகளாக ஏற்று
நீங்கள் இருவரும் தர்மப்படி நடந்து கொள்ளுங்கள்.அவர்களை நன்கு மரியாதைசெய்து வரனுக்கு கன்னியை வழங்கி திருமணம்செய்வது பிரஜபத்திய திருமண முறை.
திருமணத்தில் விருப்பமுள்ள ஆணையும் பெண்ணையும் மணமகன் -மணமகளாக ஏற்று
நீங்கள் இருவரும் தர்மப்படி நடந்து கொள்ளுங்கள்.அவர்களை நன்கு மரியாதைசெய்து வரனுக்கு கன்னியை வழங்கி திருமணம்செய்வது பிரஜபத்திய திருமண முறை.
अर्थ - विवाहोत्सुक स्त्री-पुरुष को वर-कन्या के रूप में स्वीकार कर “तुम दोनों मिलकर साथ-साथ धर्माचरण करो” यह कहते हुए और उनका समुचित रूप से स्वागत-सत्कार करते हुए वर को कन्या प्रदान करना ‘प्राजापत्य’ विवाह कहलाता है ।
आजकल कई युवक-युवतियां स्वयं ही वैवाहिक जीवन हेतु एक-दूसरे का चुनाव कर लेते हैं, और उस निर्णय को अपने-अपने माता-पिता के समक्ष रखकर उनकी सहमति पाने की हर संभव कोशिश करते हैं । माता-पिता इच्छया अनिच्छया वा विवाह का शेष कार्य परंपरानुरूप संपन्न कर देते हैं, यथासंभव स्वागत-सत्कार एवं उपहार भेंट करते हुए । ऐसे विवाह को आधुनिक काल का प्राजापत्य विवाह माना जा सकता है ।
ज्ञातिभ्यो द्रविणं दत्त्वा कन्यायै चैव शक्तितः ।
कन्याप्रदानं स्वाच्छन्द्यादासुरो धर्म उच्यते ॥31॥
(यथा पूर्वोक्त)
(ज्ञातिभ्यो कन्यायै च शक्तितः द्रविणम् दत्त्वा एव कन्याप्रदानं स्वाच्छन्द्यात् आसुरः धर्मः उच्यते ।)
अर्थ - कन्यापक्ष के बंधु-बांधवों और स्वयं कन्या को वरपक्ष द्वारा स्वेच्छया एवं अपनी सामर्थ्य के अनुसार धन दिए जाने के बाद किये जाने वाले कन्यादान को धर्मसम्मत ‘आसुर’ विवाह कहा जाता है ।
आसुर विवाह एक अर्थ में दैव विवाह का उल्टा माना जा सकता है । दैव विवाह में परपक्ष को धन-आभूषण दिये जाते हैं, उसके विपरीत आसुर विवाह में वरपक्ष कन्यापक्ष को धन आदि देता है । समाज के कुछ तबकों में कदाचित आज भी ऐसे अल्पप्रचलित विवाह देखने को मिलते हैं । इसे भी धर्मसम्मत विवाह ही समझा जाता है ।
विवाह-प्रकारों की इस चर्चा में अंतिम तीन – गान्धर्व, राक्षस, और पैशाच – की चर्चा आगामी पोस्ट में की जाएगी । – योगेन्द्र जोशी
मनुस्मृति के अनुसार विवाह के आठ प्रकार – ब्राह्म, दैव, आर्ष आदि (1)
by योगेन्द्र जोशी in कर्मकांड, धर्म, मनुस्मृति, वैदिक भारत, संस्कृत-साहित्य, Manusmriti, religion,rituals, Sanskrit Literature टैग्स: मनु, मनुस्मृति, विवाह के प्रकार, हिंदू रीतिरिवाज, Hindu customs, Manu, Manusmriti, types of marriage
‘मनुस्मृति’ हिंदुओं का एक चर्चित धर्मग्रंथ है । किंतु यह पर्याप्त विवादास्पद भी है, क्योंकि कई हिंदू इसमें लिखी बातों से सहमत नहीं होते, अपितु उनकी आलोचना ही करते हैं । मेरे मत में उसकी सभी बातें अस्वीकार्य ही हों ऐसा नहीं है जैसा कि इस ब्लॉग की पूर्ववर्ती एक पोस्ट से स्पष्ट होता है । उस में बहुत-सी बातों को तत्कालीन सामाजिक मान्यताओं का प्रतिबिंबन कहा जा सकता है । ग्रंथ में मुझे उस समय प्रचलित विवाह विधियों के प्रकार – धर्मवेत्ता ऋषि मनु के अनुसार आठ प्रकार – का विवरण पढ़ने को मिला हैं । उन्हीं को मैं आगे प्रस्तुत कर रहा हूं ।
इस संदंर्भ में मनुस्मृति का पहला श्लोक अधोलिखित है:
ब्राह्मो दैवस्तथैवार्षः प्राजापत्यस्तथाऽऽसुरः ।
गान्धर्वो राक्षसश्चैव पैशाचश्चाष्टमोऽधमः ॥21॥
(मनुस्मृति, अध्याय तीन)
(ब्राह्मः दैवः तथा एव आर्षः प्राजापत्यः तथा आसुरः गान्धर्वः राक्षसः च एव अष्टमः च अधमः पैशाचः ।)
अर्थ - विवाह आठ प्रकार के होते हैं जो क्रमशः ये हैं: ब्राह्म, दैव, आर्ष, प्राजापत्य, आसुर, गान्धर्व, राक्षस, और आठवां निकृष्टतम श्रेणी का पैशाच।)
इनमें से पहला, ब्राह्म, इस तरह परिभाषित किया गया है:
आच्छाद्य चार्चयित्वा च श्रुतिशीलवते स्वयम् ।
आहूय दानं कन्याया ब्राह्मो धर्मः प्रकीर्तितः ॥27॥
(यथा पूर्वोक्त)
(स्वयम् आहूय आच्छाद्य च अर्चयित्वा च श्रुतिशीलवते कन्यायाः दानम् धर्मः ब्राह्मः प्रकीर्तितः ।)
अर्थ – वेदों-शास्त्रों का अध्ययन जिसने किया हो ऐसे वर को स्वयमेव आमंत्रित करके, उसे वस्त्र-आभूषण आदि अर्पित करके, और समुचित रूप से पूजते हुए कन्या का सोंपा जााना धर्मयुक्त ‘ब्राह्म ’विवाह कहलाता है ।
आजकल वेदों-शास्त्रों के अध्येता तो न ढूढ़ा जाता है और न ही कोई मिलता है । कहीं यदि मिले तो अपवाद ही कहा जाएगा । इसलिए सही अर्थों में ब्राह्म विवाह अब कहीं देखने को नहीं मिलता है । अधिकांश मौकों पर आज भी सुशिक्षित वर खोजा जाता है जो बारात लेकर कन्यापक्ष के पास पहुंचता है । वेदमंत्रों के उच्चारण के साथ कन्यादान किया जाता है । उसे वस्त्रादि भी भेंट किये जाते हैं । उक्त विवरण में पूजने का अर्थ उसके स्थानीय परंपराओं के अनुरूप स्वागत-सत्कार से लिया जाना चाहिए । इस प्रकार संपन्न विवाह को ब्राह्म विवाह के निकट माना जा सकता है ।
यज्ञे तु वितते सम्यगृत्विजे कर्म कुर्वते ।
अलङ्कृत्य सुतादानं दैवं धर्मं प्रचक्षते ॥28॥
(यथा पूर्वोक्त)
(यज्ञे तु सम्यक् वितते कर्म कुर्वते ऋत्विजे अलङ्कृत्य सुता-दानम् धर्मं दैवम् प्रचक्षते ।)
अर्थ – यज्ञ-कर्म चल रहा हो तो उसमें वेदमंत्रों के उच्चारण का कार्य कर रहेऋत्विज को वर रूप में चुनते हुए और उसे आभूषण आदि से सुसज्जित करते हुए कन्या समर्पित करना ‘दैव’ विवाह कहलाता है ।
प्राचीन काल में यज्ञकर्म आम प्रचलन में थे, जिसमें वेदज्ञ पंडितवृंद भाग लेते थे । यज्ञ करना-करवाना ब्राह्मणों के कर्म होते थे । वैदिक मंत्रों के साथ उसे संपादित करने वाले ऋत्विज कहलाते थे । उस काल में वर के तौर पर वे सुयोग्य समझे जाते होंगे । कन्या की अपेक्षा रखने वाला व्यक्ति ऐसे अवसरों पर वर के रूप में स्वयं को प्रस्तुत करते होंगे । वर की खोज कर रहे माता-पिता ऐसे वरों को कन्यादान करके अपनी पुत्रियों का विवाह संपन्न करते होंगे । दैव विवाह ब्राह्म विवाह से मिलता-जुलता माना जा सकता है, क्योंकि इसमें भी वेदों-शास्त्रों के अध्येता वर को चुना जाता है । शेष कार्य वैसा ही रहता होगा ।
आर्ष आदि अन्य प्रकार के विवाहों की चर्चा अगली पोस्ट में । – योगेन्द्र जोशी
“न भक्षयन्ति ये अर्थान् …” – कौटिलीय अर्थशास्त्र में भ्रष्टाचारी के संबंध में कहे गए वचन (2)
by योगेन्द्र जोशी in चाणक्य नीति, नीति, राजनीति, सूक्ति, Chanakya Niti, Morals, Politics टैग्स:कौटिलीय अर्थशास्त्र, कौटिल्य, चाणक्य, दंडित करने की नीति, भ्रष्ट अधिकारी, Chanakya, Corrupt Officers, Kautiliya Arthashastra, Kautilya, Policy of Punishment
इस ब्लॉग की पिछली पोस्ट में मैंने चाणक्य-विरचित “कौटिलीय अर्थशास्त्र” की चर्चा की थी । तब मैंने उस ग्रंथ में उल्लिखित भ्रष्टाचार तथा भ्रष्ट अधिकारियों से संबंधित 5 श्लोकों में से 3 को उद्धृत किया था । शेष 2 श्लोकों को मैं यहां लिख रहा हूं:
आस्रावयेच्चोपचितान् विपर्यस्येच्च कर्मसु ।
यथा न भक्षयन्त्यर्थं भक्षितं निर्वमन्ति वा ॥
(उपचितान् च आस्रावयेत् विपर्यस्येत् च कर्मसु, यथा अर्थम् न भक्षयन्ति भक्षितम् वा निर्वमन्ति ।)
(कौटिलीय अर्थशास्त्र, द्वितीय अधिकरण, प्रकरण 25)
अर्थ - सरकारी धन संबंधी दायित्व में लगाए व्यक्तियों से पैसा (दंडस्वरूप) वसूला जाना चाहिए और उनकी पदावनति की जानी चाहिए, ताकि वे फिर धन का भक्षण न कर सकें और जो भक्षण किया हो उसको उगल दें ।
शासन द्वारा नियुक्त अधिकारी धन का दुरुपयोग मूलतः दो प्रकार से करते हैं । एक तो यह है कि वह किसी कार्यविशेष के लिए आबंटित धन को पूरा या अंशतः, अकेले या अन्य जनों से मिलकर, हड़प जाए; दूसरा यह कि वह अपने अधीनस्थ कर्मचारियों एवं कार्य से संबंधित अन्य व्यक्तियों की उचित निगरानी नहीं करता, जिससे वे धनका लाभ स्वयं उठाते हैं और दूसरों को उठाने देते हैं ।कौटिल्य (चाणक्य) के अनुसार पहली स्थिति में उस अधिकारी से दायित्व छीन लेना चाहिए, साथ ही उसकी पदावनति की जानी चाहिए अथवा उसे पदमुक्त कर देना चाहिए । इसी के साथ उसके द्वारा अर्जित धन छीन लेना चाहिए । दूसरी स्थिति में कार्यमुक्त करते हुए उसकी पदावनति की जानी चाहिए । उदाहरणार्थ निर्माण कार्यों की गुणवत्ता पर नजर न रखने वाले अधिकारी के विरुद्ध कार्यवाही होनी चाहिए, भले ही वह उस कार्य में धन न कमा रहा हो । कार्य के प्रति लापरवाही भी दंडनीय है ।
न भक्षयन्ति ये अर्थान् न्यायतो वर्धयन्ति च ।
नित्याधिकाराः कार्यास्ते राज्ञः प्रियहिते रताः ॥
(ये अर्थान् न भक्षयन्ति न्यायतः वर्धयन्ति च, राज्ञः प्रिय-हिते रताः ते नित्य-अधिकाराः कार्याः ।)
(कौटिलीय अर्थशास्त्र, द्वितीय अधिकरण, प्रकरण 25)
अर्थ - जो कर्मचारी राजा का धन नहीं हड़पते, बल्कि उसे न्यायसम्मत तरीके से बढ़ाते हैं, राजा के प्रियदायक हितों में संलग्न रहने वाले वैसे कर्मियों को अधिकारियों के तौर पर कार्य में नियुक्त किया जाना चाहिए ।
पूर्वकाल में राजकीय व्यवस्था प्रायः सभी समाजों में प्रचलित थी तदनुसार राजकीय कोष को राजा का धन कहा जाता है । उसी धन से सभी विकास एवं जनसुविधाओं के कार्य किए जाते थे । आज के संदर्भ में राजा उस संस्था को व्यक्त करता है जो देश की शासकीय व्यवस्था चलाती है । विभिन्न स्रोतों से धन एकत्रित करना और उसे जनकल्याण आदि के कायों में लगाना उसी संस्था का दायित्व होता है । धन प्राप्ति, उसका संचय तथा समुचित व्यय प्रशासनिक तंत्र द्वारा राजाओं के काल में और आज के लोकतंत्रों या अन्य शासकीय व्यवस्थाओं में किया जाता है । उक्त नीतिवचन इस मत पर जोर डालता है कि धन संबंधी तमाम कार्यों में संलग्न अधिकारियों पर राजा या शासकों की पैनी दृष्टि रहनी चाहिए कि वे निष्ठा से कार्य कर रहे कि नहीं । जो व्यक्ति राजकोश को हानि पहुंचा रहा हो उसे तुरंत जिम्मेदारी के पद से हटाया जाना चाहिए, उसके पदावनत कर देना चाहिए और उससे कोश को पहुंचे नुकसान की भरपाई की जानी चाहिए ।
दुर्भाग्य से हमारे देश में ऐसे लोगों के विरुद्ध सामान्यतः कोई कार्रवाई नहीं होती है । चूंकि सरकारी मुलाजिमों को उचित दंड नहीं दिया जाता है, अतः भ्रष्टाचार करने से कोई डरता नहीं । – योगेन्द्र जोशी
(यहां प्रस्तुत जानकारी चौखम्बा विद्याभवन, वाराणसी, द्वारा प्रकाशित कौटिलीय अर्थशास्त्र, संस्करण 2006, पर आधारित है ।)
“यथा हि जिह्वा-तलस्थम् मधु …” – कौटिलीय अर्थशास्त्र में भ्रष्टाचारी के संबंध में कहे गए वचन (1)
by योगेन्द्र जोशी in धर्म, नीति, राजनीति, संस्कृत-साहित्य, सूक्ति, Morals, Politics, religion,Sanskrit Literature टैग्स: आर्थिक भ्रष्टाचार, कौटिलीय अर्थशास्त्र, कौटिल्य, चाणक्य, सरकारी कर्मचारी, Chanakya, Financial Corruption, Government Official., Kautileeya Arthashastra,Kautilya
आचार्य चाणक्य के नाम से प्रायः सभी परचित होंगे । चणक के पुत्र होने के कारण उनको चाणक्य कहा जाता था, अन्यथा उनका नाम विष्णुदत्त था । उन्हें कौटिल्य के नाम से भी जाना जाता है । मैंने पहले कभी लिखी गई एक पोस्ट में उनका संक्षिप्त परिचय दिया है ।
“कौटिलीय अर्थशास्त्र” चाणक्यरचित एक ग्रंथ है, जिसमें राजा, राजकर्मचारियों एवं प्रजा के अलग-अलग क्षेत्रों में भूमिकाओं तथा कर्तव्यों का विवरण दिया गया है । उसके एक अध्याय में भ्रष्टाचार तथा भ्रष्ट अधिकारियों के बारे में लिखा गया है । मैं यहां पर तत्संबंधित 5 श्लोकों में से 3 को उद्धृत कर रहा हूं ।
यथा ह्यनास्वादयितुं न शक्यं जिह्वातलस्थं मधु वा विषं वा ।
अर्थस्तथा ह्यर्थचरेण राज्ञः स्वल्पोऽप्यनास्वादयितुं न शक्यः ॥
(यथा हि जिह्वा-तलस्थम् मधु वा विषम् वा न-आस्वादयितुम् न शक्यम्, तथा हि राज्ञः अर्थचरेण अर्थः स्वल्पः अपि न-आस्वादयितुं न शक्यः ।)
(यह तथा आगे दिए गए नीतिवचन कौटिलीय अर्थशास्त्र, द्वितीय अधिकरण, प्रकरण 25 से लिए गए हैं ।)
अर्थ - जिस प्रकार जीभ पर रखे शहद अथवा विष का रसास्वादन किए बिना नहीं रहा जा सकता है, ठीक वैसे ही राजा द्वारा आर्थिक प्रबंधन में लगाए गए व्यक्ति द्वारा धन का थोड़ा भी स्वाद न लिया जा रहा हो यह संभव नहीं ।
तात्पर्य यह है कि जो चीज आपके मुख में आ चुकी है उसका स्वाद कैसा है यह तो आपको पता चलेगा ही । और यदि वह स्वाद मन माफिक हुआ तो उसका आकर्षण तो अनुभव करेंगे ही, अधिक नहीं तो कुछ तो उसे और चखने की लालसा आपमें जग सकती है । कौटिल्य के अनुसार कुछ ऐसा ही राजकीय धन के साथ भी हो सकता है । जिस व्यक्ति को उसे संचित रखने या सही तरीके से खर्चने की जिम्मेदारी दी गई हो उसके मन में उसका कुछ हिस्सा पाने का, उससे कुछ लाभ कमाने का, लालच कदाचित उपज सकता है । उसमें से कुछ चुंगी अपने नाम करने में वह संभवतः हिचके ही नहीं । यह चुंगी प्रत्यक्ष अथवा परोक्ष तौर पर लिया जा सकता है, जैसे दलाली के रूप में । बिरले ही होते हैं जो इस लालच से अपने को मुक्त रखना चाहते हों या रख पाते हों ।
मत्स्या यथान्तःसलिले चरन्तो ज्ञातं न शक्याः सलिलं पिबन्तः ।
युक्तास्तथा कार्यविधौ नियुक्ता ज्ञातुं न शक्या धनमाददानाः ॥
(मत्स्याः यथा अन्तः-सलिले चरन्तः सलिलम् पिबन्तः ज्ञातुम् न शक्याः, तथा कार्य-विधौ युक्ताः नियुक्ताः धनम् आददानाः ज्ञातुम् न शक्याः ।)
अर्थ - जैसे पानी के अंदर चलायमान मछलियों का पानी पीना जाना नहीं जा सकता, वैसे ही कार्य-संपादन में लगाये जाने पर नियुक्त अधिकारियों द्वारा धन के अपहरण को नहीं जाना जा सकता है ।
राजस्व एकत्रित करने अथवा उसे उचित प्रकार से खर्चने की जिन अधिकारियों पर जिम्मेदारी होती है वे वस्तुतः कितनी ईमानदारी बरत रहे हैं यह आम जन प्रत्यक्षतः नहीं जान पाते हैं, क्योंकि उनके पास संबंधित धनराशि और उसके उपयोग का विवरण नहीं होता । जब कोई संस्था या व्यक्ति काफी मेहनत और छानबीन से जानकारी इकठ्ठा करता है तभी लोग कुछ जान पाते हैं । इसीलिए यह कहा जा सकता है कि पता नहीं वे क्या और कैसे कार्य कर रहे हैं ।
अपि शक्या गतिर्ज्ञातुं पततां खे पतत्त्रिणाम् ।
न तु प्रच्छन्नभावानां युक्तानां चरतां गतिः ॥
(खे पतताम् पतत्त्रिणाम् गतिः ज्ञातुम् अपि शक्या, न तु चरताम् प्रच्छन्न-भावानाम् युक्तानाम् गतिः ।)
ஆகாயத்தில் பறக்கின்ற பறவைகளின் வேகம் பற்றி தெரிந்து கொள்ள முடியும் .ஆனால் செயலில் ஈடுபட்டுள்ள பொறுப்பை நிறைவேற்றுகின்ற நிர்வாக முறைகளில் மறைந்திருக்கின்ற கருத்துணர்வுகளை அறிந்துகொள்வது இயலாததாகும்.நடக்கக்கூடியதல்ல.
பறக்கும் பறவை எங்கு எவ்வளவு வேகத்தில் செல்கிறது என்பதை சாதாரண மனிதன் பார்வை இட்டு ஒரு எல்லைவரை அறிந்துகொள்ளமுடியும் .அவன் நடத்தை ஐயத்திற்கு உரியதல்ல.
ஆனால் ஒருஅரசு ஊழியன் என்ன நினைக்கிறான் ,எப்படி காட்சி அளிக்கிறான் ,உண்மையில் அவன் என்ன செயல் செய்யும் எண்ணத்தில் உள்ளான் என்பதை எளிதாக அறிந்து கொள்ளமுடியாது.
நம் நாட்டில் இந்நாட்களில் நடக்கின்ற பொருளாதார குற்றங்கள் தெரிய முடிகிறது.எல்லாமே நடந்து முடிந்த பின் தெரியவருகிறது. யார் இதற்கு பொறுப்பு /குற்றவாளி என்றும் தெரிகிறது.இந்த காரணத்தால் தான் வெள்ளம் போல் குற்றங்கள் அதிகரிக்கின்றன. ஆனால் குறிப்பிட்ட சிலர் தான் தண்டனை பெறுகின்றனர்.
பேராசை -ஆசை மற்ற குணங்கள் அவகுணங்கள் போல் இயற்கையாகவே இருக்கிறது.இவைகள் இருப்பது பணஆசை உள்ளவனாக அவனை வெளிச்சப்படுத்துகிறது.அவன் சமுதாயத்தில் பெரிய பதவியில் அடையும் போது அல்லது தன் அதிகாரத்தை நிலை நாட்டும்போது அறிகிறோம்.இதை அடையதகுதியற்ற நடவடிக்கை எடுக்கும்போது மக்கள் வழிப்படைகின்றனர் .ஆனால் நாகரிக மனித சமுதாயம் அவனை ஒருகட்டுப்பாட்டுக்குள் வைக்க தூண்டுகிறது.பிறகும் எல்லா மனிதர்களும் நன்னடத்தை நற்குணத்தில் போதுமான திறன் பெறுவதில்லை.இந்த காரணமாக தன ஆசைகளைப் பூர்த்தி செய்ய ஊழல் வழிகளை தனதாக்கிக் கொள்கிறான்.கௌடில்யர் /சாணக்கியர் கூற்றுப்படி ஊழல் எப்பொழுதும் இருந்துள்ளது. இரண்டாயிரம் ஆண்டுகளுக்கு முன்னர் இருந்ததைவிட இப்பொழுது அதிகரித்துள்ளது.தொடர்ந்து அதிகரித்து வருகிறது.
अर्थ - आसमान में उड़ रहे पक्षियों की गति का ज्ञान पाना संभव है, किंतु कार्य में लगाए गए छिपे हुए भावों वाले व्यक्तियों के दायित्व-निर्वाह-प्रणाली को समझ पाना संभव नहीं ।
कहने का मतलब यह है कि उड़ते पक्षी किधर एवं किस रफ्तार से उड़ रहे है इसे उन पर नजर डालकर सामान्य व्यक्ति काफी हद तक समझ सकता है । उनका व्यवहार संदिग्ध नहीं होता । सरकारी कर्मचारी क्या सोच के बैठा है, वह दिखा क्या रहा है और वास्तव में क्या करने का इरादा रखता है, यह सब सरलता से नहीं जाना जा सकता है ये बातें । अपने देश में आजकल के घटित हो रहे आर्थिक अपराधों से समझ में आ जाती हैं । जब सब कुछ घट जाता है तब समझ में आता है कि बहुत कुछ गलत हो रहा है । तब भी यह स्पष्ट हो पाता है कि वास्तव में कौन जिम्मेदार है । यही कारण है कि देश में अपराधों की बाढ़ तो आ रही लेकिन दंडित बिरले ही होते हैं ।
लोभ-लालच-लालसा मनुष्य में तमाम अन्य गुणावगुणों की भांति स्वभावतः विद्यमान रहते हैं । इनकी मौजूदगी कभी धन-लोलुपता के रूप में स्वयं को उजागर करती है, तो कभी समाज में प्रतिष्ठित पदों पर पहुंचने अथवा कभी लोगों पर अपना वर्चस्व स्थापित करने के तौर पर, इत्यादि । इनको प्राप्त करने के लिए अनुचित कदम भी उठाने की इच्छा यदाकदा मनुष्य में जागने लगती है । किंतु सभ्य मानव समाज के मूल्य मनुष्य को आत्मसंयमित रहने को प्रेरित करते हैं । फिर भी सभी मनुष्य चारित्रिक तौर पर पर्याप्त सक्षम नहीं होते और इसी कारण अपनी लालसाओं को पूरा करने वे को भ्रष्टाचार का मार्ग अपना लेते हैं । कौटिलीय अर्थशास्त्र के उपर्युक्त वचन यह स्पष्ट करते हैं कि भ्रष्टाचार समाज में सदा से रहा है । हां, ढाई हजार वर्ष पूर्व की तुलना में आज यह अधिक व्यापकता पा चुका है । वस्तुतः इसमें उत्तरोत्तर वृद्धि ही हो रही है । – योगेन्द्र जोशी
(यहां प्रस्तुत जानकारी चौखम्बा विद्याभवन, वाराणसी, द्वारा प्रकाशित कौटिलीय अर्थशास्त्र, संस्करण 2006, पर आधारित है ।)
अंत में भोजपुर मंदिर (भोपाल के पास) की तस्वीर –
“ब्राह्मणोऽस्य मुखमासीद् …” – समाज में वर्ण-व्यवस्था संबंधी ऋग्वैदिक वचन
by योगेन्द्र जोशी in अध्यात्म, दर्शन, धर्म, वेद, वैदिक भारत, philosophy, religion, Spiritualism,Ved टैग्स: जाति व्यवस्था, ब्राह्मण आदि वर्ण, वर्ण व्यवस्था, श्रम विभाजन, Brahmin etc. Varna,caste system, division of labour, Varna system
वर्णाश्रम हिन्दुओं में प्रचलित एक ऐसी प्राचीन समाजिक व्यवस्था है जिसे आज की सामाजिक वास्तविकता के परिप्रेक्ष में समझ पाना कठिन है । इस व्यवस्था के दो पक्ष रहे हैं, पहला है श्रम अथवा कार्य विभाजन के आधार पर सामुदायिक स्तर के दायित्वों की 4 श्रेणियों का निर्धारण करना । इसे वर्ण व्यवस्था के नाम से जाना जाता है । दूसरा है वह पहलू जिसका संबंध इन बातों से रहता है कि मनुष्य अपनी उम्र के अलग-अलग पड़ावों पर किन दायित्वों को निभाए, कैसी दिनचर्या अपनाए, और कैसे जीवन के अपरिहार्य अवसान के लिए स्वयं को तैयार करे । ये बातें 4 कालखंडों की आश्रम व्यवस्था से संबंधित रहती हैं । मैं इस स्थल पर ऋग्वेद की उस ऋचा का उल्लेख कर रहा हूं जिसमें चारों वर्णों की बात की गई है:
ब्राह्मणोऽस्य मुखमासीद्बाहू राजन्यः कृतः ।
ऊरू तदस्य यद्वैश्यः पद्भ्यां शूद्रोऽजायतः ॥
(ऋग्वेद संहिता, मण्डल 10, सूक्त 90, ऋचा 12)
(ब्राह्मणः अस्य मुखम् आसीत् बाहू राजन्यः कृतः ऊरू तत्-अस्य यत्-वैश्यः पद्भ्याम् शूद्रः अजायतः ।)
यदि शब्दों के अनुसार देखें तो इस ऋचा का अर्थ यों समझा जा सकता है:
सृष्टि के मूल उस परम ब्रह्म का मुख ब्राह्ण था, बाहु क्षत्रिय के कारण बने, उसकी जंघाएं वैश्य बने और पैरों से शूद्र उत्पन्न हुआ ।
क्या उक्त ऋचा की व्याख्या इतने सरल एवं नितांत शाब्दिक तरीके से किया जाना चाहिए ? या यह बौद्धिक तथा दैहिक श्रम-विभाजन पर आधारित एक अधिक सार्थक सामाजिक व्यवस्था की ओर इशारा करती है ? मैं आगे अपना मत व्यक्त करूं उससे पहले यह बताना चाहता हूं कि किंचित् अंतर के साथ इस ऋचा से साम्य रखने वाला श्लोक मनुस्मृति में भी उपलब्ध है:
लोकानां तु विवृद्ध्यर्थं मुखबाहूरूपादतः ।
ब्राह्मणं क्षत्रियं वैश्यं शूद्रं च निरवर्तयत् ॥
(मनुस्मृति, अध्याय 1, श्लोक 31)
(लोकानां तु विवृद्धि-अर्थम् मुख-बाहू-ऊरू-पादतः ब्राह्मणं क्षत्रियं वैश्यं शूद्रं च निर्-अवर्तयत् ।)
शाब्दिक अर्थ: समाज की वृद्धि के उद्येश्य से उसने (ब्रह्म ने) मुख, बाहुओं, जंघाओं एवं पैरों से क्रमशः ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य तथा शूद्र का निर्माण किया ।
मेरी अपनी धारणा है कि उक्त चार वर्णों के पुरूषों का शरीरतः जन्म ब्रह्मा के चार कथित अंगों से हुआ है ऐसा मंतव्य उल्लिखित ऋग्वैदिक ऋचा में निहित नहीं होना चाहिए । मैं समझता हूं कि ये चार अंग श्रम विभाजन के चार श्रेणियों को व्यक्त करते हैं । ध्यान दें कि मनुष्य का मुख लोगों को शिक्षित करने, उन्हें उचितानुचित की बातें बताने, उन्हें अध्यात्म एवं दर्शन का जानकारी देने जैसे कार्य की भूमिका निभाता है । तदनुसार मुख ब्राह्मणोचित बौद्धिक कार्यों में संलग्नता का द्योतक है, जिसमें शारीरिक श्रम गौण होता है । इसी प्रकार भुजाओं को राज्य की बाह्य आक्रांताओं से रक्षा करने, नागरिकों को सुरक्षा प्रदान करने, समाज-विरोधी तत्वों पर नियंत्रण रखने जैसी भूमिका का द्योतक समझा जाना चाहिए । ये ऐसे कार्य हैं जिनमें अच्छी शारीरिक सामर्थ्य के साथ प्रत्युत्पन्नमतिता की बाद्धिक क्षमता की आवश्यकता अनुभव की जाती है । प्राचीन ग्रंथों में इनको क्षत्रियोचित कार्य कहा गया है ।
ऋचा में उल्लिखित शब्द जंघाओं (जांघों) को मैं तीसरी श्रेणी के कार्यों से जोड़ता हूं । ये कार्य हैं नागरिकों के भोजन हेतु कृषि कार्य में लगना, उनकी रोजमर्रा की जरूरतों की पूर्ति करना, वाणिज्यिक कार्यों को संपन्न करना आदि । इन कार्यों में व्यापार विशेष के योग्य सामान्य बुद्धि की भूमिका प्रमुख रहती है और शारीरिक श्रम की विशेष आवश्यकता नहीं होती । इन्हें वैश्यों के कार्य कहा गया है । इन सब के विपरीत वे कार्य भी समाज में आवश्यक रहे हैं, जिनमें अतिसामान्य प्रकार की बौद्धिक क्षमता पर्याप्त रहती है और जिनमें शारीरिक श्रम ही प्रायः आवश्यक होता है । मनुष्य के पांव श्रमिकोचित कार्य के द्योतक के तौर पर देखे जा सकते हैं । हाथों का कार्य प्रायः हस्तकौशल के साथ संपादित किए जाते हैं, किंतु पांव से कार्य लेना सामान्यतः मात्र श्रमसाध्य होते हैं । दूसरों को विविध सेवाएं देने वाले इस वर्ग के लोगों को शूद्र कहा गया ।
समाज में बौद्धिक एवं दैहिक श्रम के उपयोग को मोटे तौर पर उपर्युक्त प्रकार से विभाजित किया जा सकता है । हम कह सकते हैं कि ब्रह्म अर्थात् परमात्मा ने इस विभाजन के साथ ही मानव समाज की रचना की है ।
इस तथ्य को भी ध्यान में रखना चाहिए कि आज हिन्दू समाज में सैकड़ों प्रकार की जातियां देखने को मिलती हैं । ऐसे जातीय विभाजन का जिक्र प्राचीन साहित्य में नहीं मिलता । कदाचित् इस विभाजन को समय के साथ समाज में घर कर गई विकृति के तौर पर देखा जाना चाहिए । प्राचीन भारत में समाज चार वर्णों में विभक्त था और उसी का उल्लेख प्राचीन साहित्य में मिलता है ।
जिस प्रकार के कार्य में किसी परिवार के सदस्य संलग्न हों कदाचित् वही आगे की पीढ़ियां भी सीखती होंगी । ऐसा समाज में आज भी कुछ हद तक देखने को मिलता है । कुछ समय पहले तक कई व्यवसाय पीढ़ी दर पीढ़ी चलते रहे हैं । अब स्थितियां कुछ बदल गई हैं । शायद समय के साथ वर्ण विशेष परिवारों की विशिष्टता बन गया हो और ब्राह्मण के बेटा ब्राह्मण आदि की परंपरा ने जन्म लिया हो । – योगेन्द्र जोशी
दया मैत्री च भूतेषु … – ययाति का पुत्र पुरु को उपदेश (3)
by योगेन्द्र जोशी in धर्म, नीति, महाभारत, संस्कृत-साहित्य, सूक्ति, Mahabharata, Morals, religion,Sanskrit Literature टैग्स: abusive words, अपशब्द, कटु वचन, नीति, ययाति एवं पुरु, सामाजिक प्रतिष्ठा, harsh words, morals, social dignity, Yayati and Puru
महाकाव्य महाभारत के एक प्रकरण का उल्लेख करते हुए मैंने विगत दो ब्लॉग प्रविष्टियों, क्रमशः दिनांक ९ जुलाईएवं ५ अगस्त, तथा में महाराज ययाति का अपने ज्येष्ठ पुत्र पुरु को दिए गए उपदेशों की चर्चा की थी । उन्हीं उपदेशों की शृंखला के तीन अतिरिक्त श्लोक मैं यहां पर प्रस्तुत कर रहा हूं:
वाक्सायका वदनान्निष्पतन्ति यैराहतः शोचन्ति रात्र्यहानि ।
परस्य नामर्मसु ते पतन्ति तान् पण्डितो नावसृजेत परेषु ॥
(महाभारत, आदिपर्व, अध्याय , श्लोक 11)
(वदनात् वाक्-सायकाः निष्पतन्ति यैः आहतः रात्रि-अहानि शोचन्ति, ते परस्य अमर्मसु न पतन्ति, पण्डितः तान् परेषु न अवसृजेत ।)
अर्थ – कठोर वचन रूपी बाण (दुर्जन) लोगों के मुख से निकलते ही हैं, और उनसे आहत होकर अन्य जन रातदिन शोक एवं चिंता के घिर जाते हैं । स्मरण रहे कि ये वाग्वाण दूसरे के अमर्म यानी संवेदनाशून्य अंग पर नहीं गिरते, अतः समझदार व्यक्ति ऐसे वचन दूसरों के प्रति न बोले ।
दूसरे के अमर्म पर नहीं गिरते कहना आलंकारिक कथन है; तात्पर्य है कि मर्म अथवा हृदय पर ही वे आघात करते न कि अन्यत्र । दूसरों के कटु वचन किसी को कितना आहत करेंगे यह उस व्यक्ति की संवेदनशीलता पर निर्भर करता है । बहुत से लोग सब कुछ पचा जाते हैं । लेकिन संसार में भावुक प्रकृति के ऐसे लोग भी होते हैं जो दूसरे के कटु वचन से परेशान हो जाते हैं और अपनी रातों की नींद भी खो बैठते हैं । ऐसे ही लोगों के प्रति सतर्क रहने की सलाह इस श्लोक में दी गई है ।
न हीदृशं संवननं त्रिषु लोकेषु वर्तते ।
दया मैत्री च भूतेषु दानं च मधुरा च वाक ॥
(पूर्वोक्त, श्लोक 12)
(त्रिषु लोकेषु ईदृशं संवननम् न हि वर्तते, भूतेषु दया मैत्री च दानम् च मधुरा च वाक ।)
अर्थ – प्राणियों के प्रति दया, सौहार्द्र, दानकर्म, एवं मधुर वाणी के व्यवहार के जैसा कोई वशीकरण का साधन तीनों लोकों में नहीं है ।
मेरी समझ में इस स्थल पर वशीकरण का तात्पर्य कदाचित् दूसरे को अपने पक्ष में करना है किसी प्रकार के दबाव बिना, महज अपने सद्व्यवहार से । ऐसा बरताव दूसरे के प्रति करना चाहिए कि वे स्वयं ही आपके प्रति सम्मानभाव रखने लगें । तीन लोक होते हैं अथवा नहीं इसका भी महत्व नहीं है । संकेत इस बात के प्रति है कि सर्वत्र ही व्यक्ति का व्यवहार दूसरों को प्रभावित करता है ।
आज के युग में ये बातें किस हद तक मान्य हो सकती हैं इस पर मुझे शंका है । मुझे तो यह अनुभव होने लगा है कि समाज में अयोग्य व्यक्ति पूजे जा रहे है और योग्य व्यक्ति तिरस्कृत हो रहे हैं । कदाचारियों की संख्या दिनबदिन बढ़ रही है ।
तस्मात्सान्त्वं सदा वाच्यं न वाच्यं परुषं क्वचित् ।
पूज्यान् सम्पूजयेद्दद्यान्न च याचेत् कदाचन ॥
(पूर्वोक्त, श्लोक 13)
(तस्मात् सदा सान्त्वम् वाच्यं परुषम् न क्वचित् वाच्यम्, पूज्यान् सम्पूजयेद् दद्यात् कदाचन न च याचेत् ।)
अर्थ – अतः सदा ही दूसरों से सान्त्वनाप्रद शब्द बोले, कभी भी कठोर वचन न कहे । पूजनीय व्यक्तियों के सम्मान व्यक्त करे । दूसरों यथासंभव दे और स्वयं किसी से मांगे नहीं ।
ये पुरु को संबोधित ययाति के उपदेशों के अंतिम शब्द हैं, जिनमें सबके प्रति सद्व्यवहार की, अपनी तुलना में पूज्य जनों का समादर करने की, दूसरों को दान देने की, और उनसे कुछ पाने की लालसा न रखने की सलाह अभिव्यक्त है । – योगेन्द्र जोशी
न अरुन्तुदः स्यात् न नृशंसवादी … – ययाति का पुत्र पुरु को उपदेश (2)
by योगेन्द्र जोशी in धर्म, नीति, महाभारत, संस्कृत-साहित्य, सूक्ति, Mahabharata, Morals, Sanskrit Literature टैग्स: anger, क्रोध, नीति, ययाति एवं पुरु, सहिष्णुता, सामाजिक प्रतिष्ठा, morals, social dignity, tolerance, Yayati and Puru
महाकाव्य महाभारत के एक प्रकरण का उल्लेख करते हुए मैंने पिछली पोस्ट में महाराज ययाति का अपने ज्येष्ठ पुत्र पुरु को दिए गए उपदेशों की चर्चा की थी । उन्हीं उपदेशों की शृंखला के तीन अन्य श्लोक मैं यहां पर उद्धृत कर रहा हूं:
नारुन्तुदः स्यान्न नृशंसवादी न हीनतः परमभ्याददीत ।
ययास्य वाचा पर उद्विजेत न तां वदेदुषतीं पापलोक्याम् ॥
(महाभारत, आदिपर्व, अध्याय , श्लोक ८)
(न अरुन्तुदः स्यात् न नृशंस-वादी न हीनतः परम् अभि-आददीत, अस्य यया वाचा परः उद्विजेत ताम् उषतीम् पाप-लोक्याम् न वदेत् ।)
अर्थ – दूसरे के मर्म को चोट न पहुंचाए, चुभने वाली बातें न बोले, घटिया तरीके से दूसरे को वश में न करे, दूसरे को उद्विग्न करने एवं ताप पहुंचाने वाली, पापी जनों के आचरण वाली बोली न बोले ।
शरीर के अतिसंवेदनशील अंग को मर्म कहा जाता है । यह वह स्थल होता है जहां हल्की चोट का लगना भी अत्यंत कष्टदायक एवं असह्य होता है । मर्म शब्द हृदय अथवा मन के लिए भी प्रयुक्त होता है । मनुष्य को दो प्रकार से चोट पहुंचाई जा सकती है; पहला है कि शरीर के अंगविशेष पर प्रहार करना, और दूसरा है कटु वचनों के द्वारा मन को आघात पहुंचाना । आम तौर पर लोग अप्रिय वचनों से ही दूसरों को आहत करते हैं । उक्त नीतिवचन में कदाचित् ऐसा न करने की सलाह है । यह भी कहा है कि दूसरे को घटिया तरीके से अपने वश में न करे । दूसरों को नियंत्रण में लेने हेतु बलप्रयोग करके जंजीर से बांधकर रखना, कोठरी में बंद करना, परिवार के सदस्य का अपहरण करके या वैसी धमकी देकर किसी को अपने अधीन रखना, आदि ऐसे क्रूर तरीके हैं जिनसे बचने की सलाह उक्त श्लोक में निहित है ।
अरुन्तुदं परुषं तीष्णवाचं वाक्कण्टकैर्वितुदन्तं मनुष्यान् ।
विद्यादलक्ष्मीकतमं जनानां मुखे निबद्धां निर्ऋतिं वहन्तम् ॥
(पूर्वोक्त, श्लोक ९)
(अरुन्तुदम् परुषम् तीष्ण-वाचम् वाक्-कण्टकैः मनुष्यान् वितुदन्तम्, मुखे निबद्धाम् निर्ऋतिम् वहन्तम् जनानाम् अलक्ष्मीक-तमम् विद्यात् ।)
अर्थ – मर्म को चोट पहुंचाने वाली, कठोर, तीखी, कांटों के समान लोगों को चुभने वाली बोली बोलने वाले व्यक्ति को लोगों के बीच विद्यमान सर्वाधिक श्रीविहीन और मुख में पिशाचिनी का वहन करने वाले मनुष्य के तौर पर देखा जाना चाहिए ।
दूसरों के साथ कटु व्यवहार करने वाले को श्रीविहीन कहा गया है । व्यक्ति के व्यवहार के आधार पर ही समाज में किसी की प्रतिष्ठा अथवा निंदा होती है । धनवान या राजनैतिक बल आदि से लोगों के बीच झूठी और अस्थाई शान संभव है, किंतु उसे श्रीहीन ही समझा जाएगा इस श्लोक का यही आशय है ।
सद्भिः पुरस्तादभिपूजितः स्यात् सद्भिस्तथा पृष्ठतो रक्षितः स्यात् ।
सदासतामतिवादांस्तितिक्षेत् सतां वृत्तं चाददीतार्यवृत्तः ॥
(पूर्वोक्त, श्लोक १०)
(सद्भिः पुरस्तात् अभिपूजितः स्यात् तथा सद्भिः पृष्ठतः रक्षितः स्यात्, असताम् अतिवादान् सदा तितिक्षेत् आर्यवृत्तः सताम् वृत्तम् च आददीत ।)
अर्थ – व्यक्ति के कर्म ऐसे हों कि सज्जन लोग उसके समक्ष सम्मान व्यक्त करें ही, परोक्ष में भी उनकी धारणाएं सुरक्षित रहें । दुष्ट प्रकृति के लोगों की ऊलजलूल बातें सह ले, और सदैव श्रेष्ठ लोगों के सदाचारण में स्वयं संलग्न रहे ।
आम लोगों के आचरण में यह देखा जाता है कि वे सामने पड़ने पर तो चिकनी-चुपड़ी बातों से सम्मान प्रदर्शित करते हैं, लेकिन पीठ पीछे बुरा-भला भी कहने से नहीं बचते । ऐसे लोगों के कथनों से सदाचारी व्यक्ति को विचलित नहीं होना चाहिए । उसका यत्न होना चाहिए कि लोग उसकी अनुपस्थिति में भी उसके बारे में सम्मानजनक बातें करें, और वह हर दशा में अपने सदाचरण पर टिका रहे । वास्तव में दूसरों के उल्टेसीधे बोल उनके अपने ही व्यक्तित्व के दोष होते हैं । – योगेन्द्र जोशी
by योगेन्द्र जोशी in धर्म, नीति, महाभारत, लोकव्यवहार, सूक्ति, Mahabharata, Morals, religionटैग्स: anger, क्रोध, नीति, ययाति एवं पुरु, सहिष्णुता, morals, Yayati and Puru
महाकाव्य महाभारत में एक प्रकरण का वर्णन है जिसमें महाराज ययाति अपने ज्येष्ठ पुत्र पुरु को मानवीय गुणों को अपनाने का उपदेश देते हैं । पिता-पुत्र के बारे में कथा है कि ययाति जब वृद्ध हो चले परंतु ऐहिक भोग-विलास से उनकी तृप्ति नहीं हो सकी थी तो युवराज पुरु ने अपना यौवन उन्हें प्रदान कर दिया और स्वयं उनका वार्धक्य ग्रहण कर लिया । मैं इस कथा के विस्तार में नहीं जा रहा हूं । महाभारत के अनुसार कौरव-पांडव ययाति-पुत्र पुरु के अनेकों पिढ़ियों बाद के वंशज थे । उसी वंशशृंखला में दुश्यंत, भरत एवं शांतनु चर्चित राजा हुए थे । मैं जिन उपदेशों की चर्चा कर रहा हूं वे आठ श्लोकों में निबद्ध हैं, जिनमें से प्रथम दो का उल्लेख में इस स्थल पर कर रहा हूं:
अक्रोधनो क्रोधनेभ्यो विशिष्टस्तथा तितिक्षुरतितिक्षोर्विशिष्टः ।
अमानुषेभ्यो मानुषाश्च प्रधाना विद्वांस्तथैवाविदुषः प्रधानः ॥
(महाभारत, आदिपर्व, अध्याय , श्लोक 6)
(अक्रोधनः क्रोधनेभ्यः विशिष्टः तथा तितिक्षुः अतितिक्षोः विशिष्टः, अमानुषेभ्यः च मानुषाः प्रधानाः तथा एव विद्वान् अविदुषः प्रधानः ।) अर्थ – क्रोध न करने वाला क्रोधी व्यक्ति से और सहनशील व्यक्ति असहिष्णु से विशेषतर यानी श्रेष्ठतर होता है; इसी प्रकार अमनुष्य मनुष्यों एवं विद्वान अविद्वान की तुलना में श्रेष्ठतर होते हैं । क्रोध तथा असहिष्णुता उच्च जीवधारियों (पशुओं) की स्वाभाविक वृत्तियां हैं, जिन्हें अर्जित करने के लिए प्रयास नहीं करना पड़ता है । प्रयास तो इन पर नियंत्रण पाने की क्षमता पाने के लिए करना पड़ता है; जिसने नियंत्रण पा लिया हो, वह समाज में निःसंदेह विशेष स्थान का हकदार कहलाएगा । इसी प्रकार विद्वान होना भी व्यक्ति की प्रशंसनीय उपलब्धि है । ‘अमानुष’ का शाब्दिक अर्थ मनुष्य से इतर ‘प्राणी’ होता है, किंतु यहां पर इसे उस पुरुष के लिए प्रयोग में लिया गया है जिसमें अपेक्षित मानवीय गुणों का अभाव हो, अर्थात् जिसमें तमाम प्रकार के दुर्गुण अथवा राक्षसी वृत्तियां हों । दूसरों के प्रति संवेदना, परोपकार की वृत्ति, कर्तव्यनिष्ठा, लोभ-लालच का अभाव इत्यादि अपेक्षित गुण हैं, जो अमानुष में देखने को नहीं मिलते । इन गुणों से युक्त व्यक्ति सामान्य मनुष्य की तुलना में श्रेष्ठतर माना जाएगा । वर्तमान युग में ये मानवीय गुणों की बातें कही तो जाती हैं, परंतु कम ही लोग होते हैं जो अपने आचरण में इन्हें अपनाने का संकल्प लेते हैं ।
आक्रुष्यमानो नाक्रोशेन्मन्युरेव तितिक्षतः।
आक्रोष्टारं निर्दहति सुकृतं चास्य विन्दति ॥
(पूर्वोक्त, श्लोक 7)
(आक्रुष्यमानः न आक्रोशेत् मन्युः एव तितिक्षतः, आक्रोष्टारं निर्दहति अस्य सुकृतं च विन्दति ।) अर्थ – यदि अपशब्दों के द्वारा आक्रोशित किया जा रहा हो तो तज्जन्य आक्रोष अथवा क्रोध को सह लेना चाहिए । ऐसा करना आक्रोश पैदा करने वाले को ही जला डालता है और उसके सत्कर्म का फल सहने वाले को प्राप्त होता हो जाता है । आक्रोश तथा क्रोध में अंतर होता है । पहले में व्यक्ति अपनी नाराजगी चीखकर, डांट-डपटकर, अपशब्द बोलकर या गाली-गलौज की भाषा से व्यक्त करता है । ऐसा करने से वह ‘मैंने खरी-खोटी सुना दी’ के अहंभाव से संतुष्ट हो जाता है । तत्पश्चात् बात अक्सर आई-गई हो जाती है । किंतु क्रोध की अवस्था में व्यक्ति मारपीट करने और भौतिक रूप से हानि पहुंचाने तक को उतारू हो जाता है । उसका गुस्सा अधिक स्थाई होता है और कभी-कभी हानि पहुंचाने की योजना तक बन जाती है । पहले पक्ष की अनुचित हरकतें जब दूसरा पक्ष शांति से सह लेता है तो कदाचित् पहले पक्ष के मन में हारमान हो जाने का भाव पैदा हो जाता है । अहंकारवश वह अपनी गलती मानने को तैयार तो नहीं हो पाता, किंतु मन ही मन असफल हो जाने का दंश झेलता है । ‘निर्दहति’ या ‘जला डालता है’ कहने का मतलब यही होगा ऐसा मेरा सोचना है । लेकिन उसके सत्कर्म का फल क्रोध सहने वाले को कैसे मिलता है यह मैं नहीं कह सकता । दूसरे के अप्रिय व्यवहार को सहज भाव से सह लेना स्वयं में शांति प्रदान करता है यही पर्याप्त है । असहिष्णु व्यक्ति का मन बदले की आग से अशांत तो हो ही जाता है । – योगेन्द्र जोशी
गात्रं सङ्कुचितं गतिः विगलिता … – वृद्धावस्था संबंधी भर्तृहरि के वचन
by योगेन्द्र जोशी in Uncategorized टैग्स: जीवन दर्शन, भर्तृहरि, वृद्धावस्था, वैराग्यशतकम्, शतकत्रयम् Shatakatrayam, Bhartrihari, old age, Philosophy of life, Vairagyashatam
जीवन-यात्रा के अंत की ओर अग्रसर हो रहे मेरे एक मित्र जब अपनी व्याधियों का वर्णन करने लगे कि कैसे अब उन्हें सुनाई कम देता है, कि चश्मा भी मददगार नहीं रह गया है, कि दांतों के अभाव में ‘डेंचर’से काम चलाना पड़ता है, कि घुटने में दर्द बना ही रहता है, इत्यादि, तो मुझे राजा भर्तृहरि के वैराग्यशतकम् का एक श्लोक स्मरण हो आया । राजा भर्तृहरि के बारे में मैंने इसी ब्लॉक में पहले कभी दो-चार बातें लिखीं हैं (देखें 30 सित. 2008 की प्रवृष्टि) । संबंधित श्लोक ये है:
गात्रं सङ्कुचितं गतिर्विगलिता भ्रष्टा च दन्तावलिर्दृष्टिर्नश्यति वर्धते बधिरता वक्त्रं च लालायते ।
वाक्यं नाद्रियते च बान्धवजनो भार्या न शुश्रूषते हा कष्टं पुरुषस्य जीर्णवयसः पुत्रोऽप्यमित्रायते ॥
(भर्तृहरिरचित वैराग्यशतकम् , १११)
(गात्रं सङ्कुचितं, गतिः विगलिता, दन्तावलिः च भ्रष्टा, दृष्टिः नश्यति, बधिरता वर्धते, वक्त्रं च लालायते, बान्धवजनः च वाक्यं न आद्रियते, भार्या न शुश्रूषते, पुत्रः अपि अमित्रायते, हा जीर्णवयसः पुरुषस्य कष्टं ॥)
अर्थ - (वृद्धावस्था में आदमी की ऐसी दुर्गति होती है कि) शरीर सिकुड़ने लगता है (उसमें झुर्रिया पड़ जाती हैं), चाल-ढाल में विकार आ जाता है (व्यक्ति लड़खड़ाते हुए चलता है), दंतपंक्ति गिर जाती है (दांत सड़-गल जाते हैं), आंखों की ज्योति क्षीण हो जाती है, श्रवण-शक्ति का ह्रास हो जाता है, मुंह से लार चूने लगती है (मुख पर भी नियंत्रण नहीं रह जाता है), सगा-संबंधी या नाते रिश्तेदार भी कहे गये वचन का सम्मान नहीं करता है (यानी वह भी वूढ़े व्यक्ति की बातों को सम्मान नहीं देता), पत्नी भी सेवाभाव नहीं दर्शाती है, और पुत्र भी शत्रु की भांति व्यवहार करने लगता है; अहो, उम्र ढल जाने पर पुरुष का जीवन कितना कष्टमय हो जाता है!
उक्त बातें पुरुष को इंगित करते हुए कही गई हैं, किंतु इन्हें अधिक व्यापक संदर्भ में समझा जाना चाहिए, यानी स्त्री एवं पुरुष दोनों के लिए ही ये लागू होती हैं । आधुनिक काल में शारीरिक रोगों के कारगर उपचार उपलब्ध हैं इसलिए आर्थिक तौर पर समर्थ व्यक्ति के लिए स्थिति इतनी गंभीर नहीं रहती है । फिर भी शरीरतः व्यक्ति असमर्थ तो होने ही लगता है । प्राचीन काल में प्रभावी चिकित्सा का अभाव अधिक सताता रहा होगा, जो धन से कमजोर व्यक्ति को आज भी भुगतना पड़ता है । कुछ भी हो बुढ़ापा एक अभिशाप के तौर पर भोगना ही पड़ता है । – योगेन्द्र जोशी
मृच्छकटिकम् नाट्यरचना – चोरी के पक्ष में चोर का तर्क
by योगेन्द्र जोशी in नीति, लोकव्यवहार, व्यंग, संस्कृत-साहित्य, Mrichchaakatikam, Sanskrit Literature टैग्स: चोरी, मृच्छकटिकम्, संस्कृत नाटक, Mricchakatikam, Sanskrit play, theft
मृच्छकटिकम् संस्कृत साहित्य की एक चर्चित नाट्यरचना है जिसकी चर्चा मैं पहले कभी कर चुका हूं (देखें‘संस्कृत नाट्यकृति …’) । इस रचना में चोरी का एक प्रकरण है, जिसमें चोरी के धंधे से जीवनयापन करने वाले चोर के मन में घुप अंधेरी रात में सेंध लगाते समय क्या-क्या विचार उपजते हैं इसका वर्णन किया गया है । शर्विलक नामक वह चोर स्वयं से कहता है कि समाज में चोरी की निःसंदेह निंदा की जाती है, लेकिन वह इस मत को अस्वीकार करता है, क्योंकि याचक की भांति किसी की चाकरी करने से भला तो स्वतंत्र होकर चोरी करना है । लोग कुछ भी मानें, मैं तो इसी कार्य में लगना ठीक मानता हूं । देखिए उसके उद्गार:
कामं नीचमिदं वदन्तु पुरुषाः स्वप्ने तु यद्वर्द्धते
विश्वस्तेसु च वञ्चनापरिभवश्चौर्यं न शौर्यं हि तत् ।
स्वाधीना वचनीयतापि हि वरं वद्धो न सेवाञ्जलिः
मार्गो ह्येष नरेन्द्रसौप्तिकवधे पूर्वं कृतो द्रोणिना ॥
(मृच्छकटिकम्, तृतीय अंक, 11)
(यत् तु स्वप्ने वर्द्धते, विश्वस्तेसु च वञ्चना-परिभवः तत् चौर्यम् शौर्यम् न हि, पुरुषाः इदम् कामम् नीचम् वदन्तु, स्वाधीना वचनीयता अपि हि वरम्, वद्धः सेवा-अञ्जलिः न, पूर्वम् एषः मार्गः हि द्रोणिना नरेन्द्र-सौप्तिक-वधे कृतः ।)
अर्थ - जो लोगों की निद्रावस्था में किया जाता है, अनिष्ट के प्रति अशंकित लोगों का जिस चोरी से तिरस्कार हो जाता है, उसे किसी शूरवीर का कार्य तो नहीं माना जा सकता है । लोग इस कार्य की निंदा करते रहें, परंतु मैं तो निंद्य होने के बावजूद स्वतंत्र वृत्ति होने के कारण इसे श्रेष्ठ मानता हूं; यह किसी के समक्ष सेवक की भांति बद्धहस्त होने से तो बेहतर है । इतना ही नहीं, पहले भी इस मार्ग को द्रोणाचार्य-पु़त्र ने महाराज के पुत्रों के बध हेतु अपनाया था ।
चोर शर्विलक के मतानुसार किसी के आगे हाथ जोड़ने से अच्छा तो स्वतंत्र रूप से संपन्न किया जाने वाला चौर्यकार्य बेहतर है । लोग इसकी निंदा करते हैं, किंतु चर्चित लोगों ने तक चोरी का रास्ता अपनाया है । इस प्रकरण में महाभारत की उस घटना का उल्लेख चोर करता है जिसमें द्रोणाचार्य के पुत्र अश्वत्थामा ने रात में पांडवों के शिबिर में चोरी से घुसकर द्रौपदी-पुत्रों का बध किया था ।जयद्रथ का वध भी श्रीकृष्ण ने धोखे से ही करवाया था । असल में देखा जाए तो चोरी से अपना मकसद सिद्ध करने की तमाम घटनाओं का जिक्र पौराणिक कथाओं में मिलता है । चोरी का मतलब है किसी को धोखा देकर कुछ भी हासिल करना । रामायण में सीताहरण एवं बालीबध ऐसे ही कृत्य थे । इंद्र ने चोरी से ही गौतम-पत्नी अहिल्या का सतीत्व लूटा था ।
आजकल तो ‘चोरी’ आम बात हो गई है । अपने महान् देश में जिधर देखो उधर संभ्रांत कहे जाने वाले अनेकों राजनेता और शासकीय कर्मचारी चोरी में लिप्त पाए जा रहे हैं ।
नाटक में अन्यत्र स्थल पर चोर शर्विलक अपनी प्रेमिका को समझाता है कि चोरी की भी उसकी कुछ मर्यादाएं हैं । वह कहता है:
नो मुष्णाम्यबलां विभूषणवतीं फुल्लामिवाहं लतां
विप्रस्वं न हरामि काञ्चनमथो यज्ञार्थमभ्युद्धृतम् ।
धात्र्युत्सङ्गगतं हरामि न तथा बालं धनार्थी क्वचित्
कार्य्याकार्य्यविचारिणी मम मतिश्चौर्ये९पि नित्यं स्थिता ॥
(मृच्छकटिकम्, चतुर्थ अंक, 6)
(फुल्लाम् लताम् इव विभूषण-वतीम् अबलाम् धनार्थी अहम् नो मुष्णामि, विप्रस्वम् अथो यज्ञार्थम् अभि-उुद्-धृतम् काञ्चनम् न हरामि, तथा धात्रि-उत्सङ्ग-गतम् बालम् न क्वचित् हरामि, चौर्ये अपि कार्य्य-अकार्य्य-विचारिणी मम मतिः नित्यम् स्थिता ।)
अर्थ - सुपुष्पित लता की भांति आभूषणों से लदी स्त्री के आभूषण मैं नहीं छीनता, ब्राह्मण की संपदा और यज्ञकर्म के लिए सुरक्षित सोने पर हाथ साफ नहीं करता, धाय या उपमाता की गोद में स्थित बच्चे की चोरी नहीं करता; दरअसल चोरी के काम में भी मेरी मति करणीय एवं अकरणीय के विवेक पर टिकी रहती है ।
चोर का मंतव्य है कि वह हर प्रकार की, हर किसी की चोरी नहीं करता है । कदाचित् वह कमजोर से छीनाछपटी नहीं करता, गरीब की चोरी नही करता, धर्मकर्म से जुड़ी चीजों की चोरी नहीं करता । चोरी के भी उसके कुछ उसूल हैं ।
आज की सामाजिक स्थिति देखिए । सर्वत्र चोरी और लूटपाट चल रही है । न किसी की उम्र का लिहाज है, न किसी की आर्थिक स्थिति का विचार है, न किसी प्रकार को शर्मोहया है । वस्तुतः चौर्य में संलिप्त मृच्छकटिकम् के पात्र शर्विलक का चरित्र आज के सफेदपोश चोरों से कहीं ऊपर है । – योगेन्द्र जोशी
ॐ शं नो मित्रः शं वरुणः … – तैत्तिरीय उपनिषद् की प्रार्थना
by योगेन्द्र जोशी in अध्यात्म, उपनिषद्, दर्शन, धर्म, सूक्ति, philosophy, religion, Spiritualism,Upanishada टैग्स: तैत्तिरीय उपनिषद्, त्रिविध ताप, दैवी शक्ति, प्राण वायु, शं नो मित्रः, शान्तिपाठ,divine power, prayer for welfare, Taittiriya Upanishad, triple afflictions, vital air
तैत्तिरीय उपनिषद् 11 प्रमुख उपनिषदों (ईश, ऐतरेय, कठ, केन, छान्दोग्य, तैत्तिरीय, बृहदारण्यक, माण्डूक्य, मुण्डक, प्रश्न, श्वेताश्वर) में से एक है । यों उपनिषदों की कुल संख्या इससे कहीं अधिक बताई जाती है । गीता प्रेस, गोरखपुर, के एक उपनिषद् विशेषांक में 54 उपनिषदों का उल्लेख है । किंतु पूर्वोक्त उपनिषदों को छोड़ अन्य चर्चा में कम ही सुनाई देते हैं । हर उपनिषद् का आरंभ ‘शान्तिपाठ’ से होता है, जो वस्तुतः एक प्रकार की प्रार्थना है । ये प्रार्थनाएं उन दैवी शक्तियोंको संबोधित रहती हैं जिन्हें आस्थावान् लोग सृष्टि के विविध घटकों से जोड़कर देखते आए हैं । वैदिक मान्यता है कि निर्जीव-सी दिखने वाली हर वस्तु के पीछे एक अधिष्ठाता देवता रहता है । उस देवता से कल्याण की प्रार्थना शान्तिपाठ में निहित रहती है ।
तैत्तिरीय उपनिषद् तीन अध्यायों में बंटा है जिनको ‘वल्ली’नाम दिया गया है; ये हैं शिक्षावल्ली, ब्रह्मानन्दवल्ली, एवं भृगुवल्ली । प्रत्येक वल्ली में दिये गये वचन ‘अनुवाक’कहे जाते हैं । इस उपनिषद् का अध्ययन जिस शान्तिपाठ अथवा प्रार्थना से होता है वह अपेक्षया अचर्चितकौषितकीब्राह्मणोपनिषद् तथा मुद्गलोपनिषद् में भी शामिल है । यह प्रार्थना निम्नलिखित है:
ॐ शं नो मित्रः शं वरुणः । शं नो भवत्वर्यमा । शं नो इन्द्रो बृहस्पतिः । शं नो विष्णुरुरुक्रमः । नमो ब्रह्मणे । नमस्ते वायो । त्वमेव प्रत्यक्षं बह्मासि । त्वामेव प्रत्यक्षं ब्रह्म वदिष्यामि । ऋतं वदिष्यामि । सत्यं वदिष्यामि । तन्मामवतु । तद्वक्तारमवतु । अवतु माम । अवतु वक्तारम् ।
ॐ शान्तिः । शान्तिः । शान्तिः ।
(ॐ शं नः मित्रः शं वरुणः । शं नः भवतु अर्यमा । शं नः इन्द्रः बृहस्पतिः । शं नः विष्णुः उरुक्रमः । नमः ब्रह्मणे । नमः ते वायो । त्वम् एव प्रत्यक्षं बह्म असि । त्वाम् एव प्रत्यक्षं ब्रह्म वदिष्यामि । ऋतं वदिष्यामि । सत्यं वदिष्यामि । तत् माम् अवतु । तत् वक्तारम् अवतु । अवतु माम । अवतु वक्तारम् । ॐ शान्तिः, शान्तिः, शान्तिः ।)
अर्थ - देवता ‘मित्र’ हमारे लिए कल्याणकारी हों, वरुण कल्याणकारी हों । ‘अर्यमा’हमारा कल्याण करें । हमारे लिए इन्द्र एवं बृहस्पति कल्याणप्रद हों । ‘उरुक्रम’ (विशाल डगों वाले) विष्णु हमारे प्रति कल्याणप्रद हों । ब्रह्म को नमन है । वायुदेव तुम्हें नमस्कार है । तुम ही प्रत्यक्ष ब्रह्म हो । अतः तुम्हें ही प्रत्यक्ष तौर पर ब्रह्म कहूंगा । ऋत बोलूंगा । सत्य बोलूंगा । वह ब्रह्म मेरी रक्षा करें । वह वक्ता आचार्य की रक्षा करें । रक्षा करें मेरी । रक्षा करें वक्ता आचार्य की । त्रिविध ताप की शांति हो ।
मैं इस प्रार्थना में प्रयुक्त कई संबोधनों/शब्दों के अर्थ समझ नहीं पाया हूं । जैसा पहले कहा गया है, प्रकृति के विविध घटकों और प्राणियों की जैविक प्रक्रियाओं के साथ देवताओं को अधिष्ठाता के तौर पर जोड़ा गया है । ‘मित्र प्राणवायु एवं दिन का अधिष्ठाता देवता है, जब कि वरुण रात्रि एवं अपानवायु का अधिष्ठाता है । सामान्यतः मित्र के अर्थ सूर्य से लिया जाता है और वरुण को समुद्र तथा जल से जोड़ा जाता है । अर्यमा सूर्यमंडल का देवता है । शब्दकोष में सूर्य को अर्यमा भी कहा गया है । इंद्र वर्षा एवं बृहस्पति बुद्धि के देवता माने गये हैं । (संस्कत में ‘मित्र’शब्द पृल्लिंग में सूर्य, और नपुंसकलिंग में यार-दोस्त-सुहृद् को व्यक्त करता है ।)
विष्णु को पैरों का देवता, अर्थतः गति का देवता, माना गया है । उरुक्रम का शाब्दिक अर्थ है विशाल डगों वाला । कदाचित् इसका संबंध पौराणिक कथाओं में वर्णित वामनावतार में विष्णु द्वारा तीन लोकों को तीन चरणों में नापे जाने से है ।
वैदिक चिंतक शरीर में उपस्थित पांच वायुओं की बात करते हैं । ये हैं: प्राण, अपान, समान, व्यान एवं उदान । प्राणवायु का स्थान फेफड़े हैं । शरीर में इसका आवागमन मुख/नासिका के माध्यम से होता है तथा यह जीवन का आधार है । इसके विपरीत अपान मलद्वार से निष्कासित होने वाली वायु है । नाभिक्षेत्र में स्थित पाचन क्रिया में सम्मिलित प्राणशक्ति को समान कहा जाता है । व्यान वह प्राणशक्ति है जो समस्त शरीर में व्याप्त रहती है । इसे कदाचित् रक्त द्वारा शरीर के विभिन्न अंगों तक पहुंचने वाले पोषक तत्वों के प्रवाह से जोड़ा जा सकता है । और अंत में उदान मस्तिष्क की क्रियाओं को संचालित करने वाली प्राणशक्ति है । वास्तव में ये प्राणशक्तियां क्या हैं मैं समझ नहीं सका हूं ।
इस प्रार्थना में यह तथ्य निहित है कि वह परम ब्रह्म स्वयं को अलग-अलग स्वरूपों में प्रस्तुत करता है । उस ब्रह्म को प्रणाम किया जा रहा है । वायु प्रत्यक्ष और सर्वप्रथम अनुभव की जाने वाली वस्तु है । अतः वायु को ब्रह्म का प्रत्यक्षतः अनुभव में आने वाला देवता कहकर उसी को ब्रह्म कहने की बात कही गयी है ।
ऋत सत्य का ही पर्याय है । यहां पर ऋत वचन उचित एवं निष्ठापरक कथन को व्यक्त करता है । वस्तुनिष्ठ स्तर पर कोई चीज जैसी हो वैसी कहना सत्य कहा गया है ।
इस शान्तिपाठ में शिष्य ब्रह्म से अपनी एवं अपने आचार्य यानी उपदेष्टा वक्ता की रक्षा की प्रार्थना करता है ।
और अंत में तीन बार ‘शान्तिः’ का उच्चारण त्रिविध तापों का कष्टों के शमन हेतु किया गया है । ये ताप हैं: आधिभौतिक, आधिदैविक, एवं आध्यात्मिक – (क्रमशः सांसारिक वस्तुओं/जीवों से प्राप्त कष्ट, दैवी शक्तियों द्वारा दिया गया या पूर्व में स्वयं के किए गये कर्मों से प्राप्त कष्ट, और अध्यात्मिक अज्ञानजनित कष्ट ।) – योगेन्द्र जोशी
महाभारत महाकाव्यः वृक्षरोपण एवं जलाशय विषयक नीतिवचन (4)
by योगेन्द्र जोशी in नीति, महाभारत, वन-संरक्षण, संस्कृत-साहित्य, सूक्ति, Mahabharata, Morals,Sanskrit Literature टैग्स: तालाब तथा जलाशय, परलोक, महाभारत, वृक्ष की उपयोगिता, वृक्षरोपण की महत्ता, importance of tree plantation, Mahabharat, ponds and water pools, the other world,usefulness of tree
विगत ५ तारीख (जनवरी) और उसके पहले की चिट्ठा-प्रविष्टियों में महाभारत महाकाव्य के एक प्रकरण (भीष्म पितामह द्वारा महाराज युधिष्ठिर को दिये गये वृक्षों एवं जलाशयों की महत्ता के उपदेश) का जिक्र किया गया था । उसी से संबंधित इस अंतिम किश्त में नीति विषयक अन्य दो श्लोकों का उल्लेख मैं आगे कर रहा हूं:
तडागकृत् वृक्षरोपी इष्टयज्ञश्च यो द्विजः ।
एते स्वर्गे महीयन्ते ये चान्ये सत्यवादिनः ॥
(महाभारत, अनुशासन पर्व, अध्याय 58, श्लोक 32)
(तडाग-कृत् वृक्ष-रोपी इष्ट-यज्ञः च यः द्विजः, एते स्वर्गे महीयन्ते ये च अन्ये सत्य-वादिनः ।)
अर्थ - तालाब बनवाने, वृक्षरोपण करने, अैर यज्ञ का अनुष्ठान करने वाले द्विज को स्वर्ग में महत्ता दी जाती है; इसके अतिरिक्त सत्य बोलने वालों को भी महत्व मिलता है ।
द्विज का शाब्दिक अर्थ है जिसका दूसरा जन्म हुआ हो । हिंदु परंपरा के अनुसार आम तौर पर तीन वर्णों, ब्राह्मण, क्षत्रिय, एवं वैश्य के लिए द्विज शब्द प्रयुक्त होता है जिनमें यज्ञोपवीत की प्रथा रही है । यह बात कर्मकांडों से जुड़ी है । गहराई से सोचा जाए तो द्विज का अर्थ संस्कारित व्यक्ति से है । कहा गया है “जन्मना जायते शूद्र संस्कारैर्द्विज उच्यते” । अर्थात् जन्म से तो सभी शूद्र ही पैदा होते हैं, संस्कारित होने से ही वह द्विज होता है । संस्कारवान् से तात्पर्य है सदाचरण का जिसे पाठ दिया जा चुका हो, जैसा यज्ञोपवीत के समय किया जाता है । मात्र जनेऊ धारण करने से संस्कारित नहीं हो जाता है कोई; असल बात सदाचरण से बनती है । मैं समझता हूं उक्त श्लोक में द्विज का निहितार्थ यही है ।
यज्ञ का अर्थ सामान्यतः समिधा से प्रज्वलित अग्निकुंड में घी-तिल-जौ जैसे हवनीय सामग्री सेहवन करने से लिया जाता हैं । किंतु मैं मानता हूं कि यज्ञ के अर्थ इससे अधिक व्यापक हैं । मेरी राय में यज्ञ का अर्थ विविध कर्तव्यों के संपादन से लिया जाना चाहिए जिनकी मनुष्य से अपेक्षा की जाती है । कदाचित् इसीलिए शास्त्रों में पंच महायज्ञों (भूतयज्ञ, मनुष्ययज्ञ, पितृयज्ञ, देवयज्ञ, एवं ब्रह्मयज्ञ) का उल्लेख मिलता है, जो मनुष्य और मनुष्येतर प्राणियों, पितरों, आदि के प्रति समर्पित रहते हैं । (देखें http://vichaarsankalan.wordpress.com/2010/09/07/ऋग्वैदिक-सूक्ति-आनोभद्र/)सत्य बोलने की महत्ता को तो विश्व के सभी समाजों में मान्यता प्राप्त है, भले ही व्यवहार में तदनुरूप आचरण विरले ही करते हों ।
तस्मात्तडागं कुर्वीत आरामांश्चैव रोपयेत् ।
यजेच्च विविधैर्यज्ञैः सत्यं च सततं वदेत् ॥
(पूर्वोक्त, श्लोक 33)
(तस्मात् तडागं कुर्वीत आरामान् च एव रोपयेत्, यजेत् च विविधैः यज्ञैः सत्यं च सततं वदेत् ।)
अर्थ - उपर्युक्त बातों को दृष्टि में रखते हुए मनुष्य को चाहिए कि वह तालाबों का निर्माण करे/करवाए; बाग-बगीचे बनवाए; विविध प्रकार के यज्ञों का अनुष्ठान करे; और सत्य बोलने का संकल्प ले ।
आराम शब्द संस्कृत के रम् क्रियाधातु से बना है, जिसका अर्थ है आनंद अनुभव करना, प्रसन्न होना, रम जाना आदि । उसके अनुसार आराम का अर्थ बाग-बगीचा, पार्क, रमणीय स्थल, घूमने-फिरने का स्थान आदि लिया जा सकता है । मनुष्य को ऐसे स्थलों का निर्माण कराना चाहिए । यज्ञ का व्यापक अर्थ मैंने हितकर कर्तव्यों के संपादन से लिया है । मनुष्य सत्कर्म करे और मिथ्या भाषण न करे यही संदेश इस श्लोक से लिया जा सकता है । – योगेन्द्र जोशी
महाभारत महाकाव्यः वृक्षरोपण एवं जलाशय विषयक नीतिवचन (3)
by योगेन्द्र जोशी in नीति, महाभारत, लोकव्यवहार, वन-संरक्षण, संस्कृत-साहित्य, Mahabharata,Morals, Sanskrit Literature टैग्स: परलोक, महाभारत, वृक्ष की उपयोगिता, वृक्षरोपण की महत्ता,importance of tree plantation, Mahabharat, the other world, usefulness of tree
मैंने १६ अक्टूबर एवं १२ नवंबर के आलेखों में महाभारत महाकाव्य के एक प्रकरण का जिक्र किया था, जिसमें भीष्म पितामह द्वारा महाराज युधिष्ठिर को दिये गये वृक्षों एवं जलाशयों की महत्ता के उपदेश का वर्णन किया गया है । कई हफ़्तों के बाद मैं उसी विषय पर अगले दो श्लोकों को यहां उद्धृत कर रहा हूं:
पुष्पिताः फलवन्तश्च तर्पयन्तीह मानवान् ।
वृक्षदं पुत्रवत् वृक्षास्तारयन्ति परत्र च ॥
(महाभारत, अनुशासन पर्व, अध्याय 58, श्लोक 30)
(इह पुष्पिताः फलवन्तः च मानवान् तर्पयन्ति, वृक्षाः वृक्षदं पुत्रवत् परत्र च तारयन्ति ।)
अर्थ – फलों और फूलों वाले वृक्ष मनुष्यों को तृप्त करते हैं । वृक्ष देने वाले अर्थात् समाजहित में वृक्षरोपण करने वाले व्यक्ति का परलोक में तारण भी वृक्ष करते हैं ।
पेड़-पौधों का महत्व फल-फूलों के कारण होता ही हैं । अन्य प्रकार की उपयोगिताएं भी उनसे जुड़ी हैं, जैसे पथिकों को छाया, गृहस्थों को जलाने के लिए इंधन, भवन निर्माण के लिए लकड़ी, इत्यादि । स्वर्ग-नर्क में विश्वास करने वालों के मतानुसार परलोक में मनुष्य का तारण पुत्र करता है । इस नीति वचन के अनुसार वृक्ष भी पुत्रवत् उसका तारण करते हैं ।
तस्मात् तडागे सद्वृक्षा रोप्याः श्रेयोऽर्थिना सदा ।
पुत्रवत् परिपाल्याश्च पुत्रास्ते धर्मतः स्मृताः ॥
(पूर्वोक्त, श्लोक 31)
(तस्मात् श्रेयस्-अर्थिना तडागे सद्-वृक्षा सदा रोप्याः पुत्रवत् परिपाल्याः च, ते धर्मतः पुत्राः स्मृताः ।)
अर्थ - इसलिए श्रेयस् यानी कल्याण की इच्छा रखने वाले मनुष्य को चाहिए कि वह तालाब के पास अच्छे-अच्छे पेड़ लगाए और उनका पुत्र की भांति पालन करे । वास्तव में धर्मानुसार वृक्षों को पुत्र ही माना गया है ।
वृक्षों की उपयोगिता देखते हुए उनको पुत्र कहा गया है । जिस प्रकार मनुष्य अपने पुत्र का लालन-पालन करता है वैसे ही वृक्षों का भी करे । जैसे सुयोग्य पुत्र माता-पिता एवं समाज का हित साधता है वैसे ही वृक्ष भी समाज के लिए हितकर होते हैं ।
मेरा मानना है कि नीतिवचनों में जहां कहीं पुत्र शब्द का प्रयोग किया जाता है वहां उसका अर्थ संतान समझना चाहिए । इस संसार में पुत्र एवं पुत्री की भूमिका समान रूप से महत्वपूर्ण समझी जानी चाहिए, क्योंकि प्राणीजगत् में दोनो की महत्ता समान रूप से देखी जाती है । – योगेन्द्र जोशी
महाभारत महाकाव्यः वृक्षरोपण एवं जलाशय विषयक नीतिवचन (2)
by योगेन्द्र जोशी in नीति, महाभारत, वन-संरक्षण, संस्कृत-साहित्य, Mahabharata, Morals, Sanskrit Literature
इस चिठ्ठे की पिछली प्रविष्टि (16 अक्टूबर) में मैंने इस बात की चर्चा की थी कि महाभारत महाकाव्यके एक प्रकरण में भीष्म पितामह द्वारा महाराज युधिष्ठिर को वृक्षों एवं जलाशयों की महत्ता के उपदेश का वर्णन किया गया है । उसी विषय पर उपलब्ध अगले दो श्लोकों को यहां उद्धृत किया जा रहा है:
पुष्पैः सुरगणान् वृक्षाः फलैश्चापि तथा पितॄन् ।
छायया चातिथिं तात पूजयन्ति महीरुहः ॥
(महाभारत, अनुशासन पर्व, अध्याय 58, श्लोक 28)
(पुष्पैः सुर-गणान् वृक्षाः फलैः च अपि तथा पितॄन्, छायया च अतिथिं तात पूजयन्ति महीरुहः ।)
छायया चातिथिं तात पूजयन्ति महीरुहः ॥
(महाभारत, अनुशासन पर्व, अध्याय 58, श्लोक 28)
(पुष्पैः सुर-गणान् वृक्षाः फलैः च अपि तथा पितॄन्, छायया च अतिथिं तात पूजयन्ति महीरुहः ।)
अर्थ - हे मेरे तात युधिष्ठिर, वृक्षवृंद अपने फूलों से देवताओं को और उसी प्रकार फलों से पितरों की पूजा करते हैं । इसके अलावा ये वृक्ष अपनी छाया द्वारा अतिथि जनों के प्रति सम्मान दर्शाते हैं ।
तात्पर्य यह है कि पेड़ों से प्राप्त फल-फूलों के माध्यम से ही देवों-पितरों की पूजा-अर्चना की जाती है । थके-मांदे अतिथि (पथिक) को इनसे विश्राम हेतु छाया प्राप्त होती है । इसलिए इनकी महत्ता सर्वस्वीकार्य है ।
किन्नरोरगरक्षांसि देवगन्दर्भमानवाः ।
तथा ऋषिगणाश्चैव संश्रयन्ति महीरुहान् ॥
(पूर्वोक्त, श्लोक 29)
(किन्नर-उरग-रक्षांसि देव-गन्दर्भ-मानवाः, तथा ऋषि-गणाः च एव महीरुहान् संश्रयन्ति ।)
तथा ऋषिगणाश्चैव संश्रयन्ति महीरुहान् ॥
(पूर्वोक्त, श्लोक 29)
(किन्नर-उरग-रक्षांसि देव-गन्दर्भ-मानवाः, तथा ऋषि-गणाः च एव महीरुहान् संश्रयन्ति ।)
अर्थ - किन्नर, उरग, राक्षस, देवता, मनुष्य और ऋषियों के समूह वृक्षों का आश्रय स्वीकारते है ।
मैं इस श्लोक का अर्थ ठीक से नहीं समझ सका हूं । यहां उल्लिखित किन्नर आदि के वास्तव में क्या तात्पर्य हैं ? उरग शब्द सामान्यतः सरीसृप प्रजाति के जीवधारियों के लिए प्रयुक्त होता है । योंकिन्नर का शाब्दिक अर्थ है विकृत पुरुष – पुरुष जिसमें मानसिक अथवा शारीरिक तौर पर विकार हो । आजकल यौनांगों की विकृति वालों को किन्नर पुकारा जाता है । पौराणिक कथाओं से ऐसा प्रतीत होता है कि किन्नर मानवशरीरधारी जीव थे । मैं मानता हूं कि वे मानवों की एक जाति थी जो स्वयं को सभ्य कहने वाले आर्यों के क्षेत्र से दूर अलग प्रकार की जीवन शैली वाले लोग थे । कुछ ऐसी ही बात राक्षसों के लिए लागू होती है, जो मानवशरीरधारी उग्र स्वभाव वाले, उत्पाती, एवं आर्यों की नजर में ‘असभ्य’ रहे होंगे । देवताओं को उच्च क्षमताओं के पूज्य ‘प्राणी’ समझा जाता था । नृत्य गायन आदि में पारंगत जाति गंदर्भ कही जाती थी । मेरा मानना है कि ये सब वस्तुतः मनुष्यों की अलग-अलग जातियां रही होंगी । ऐसा इसलिए कि पुराणों में जैविक दृष्टि से सभी समान थे । उनके परस्पर दैहिक संसर्ग, वैवाहिक संबंधों की कथाएं पढ़ने को मिलती हैं । उरग भी एक जाति रही होगी । अगर उरग सामान्य अजगर-सांप आदि को इंगित करता होता, तो पशु शब्द का प्रयोग अधिक सार्थक होता । किन्नर, गंदर्भ आदि के साथ पशु अर्थ में उरग शामिल करना अटपटा लगता है । यों भी पुराणों में नागकन्याओं के साथ विवाह आदि की कथाएं प्रचलित हैं । इस प्रकार ये सभी शब्द मानवों की विविध जातियों को व्यक्त करते होंगे ऐसा मेरा सोचना है । श्लोक के अनुसार ये सभी पेड़.-पौधों पर अलग-अलग प्रकार से निर्भर करते हैं । – योगेन्द्र जोशी
महाभारत महाकाव्यः वृक्षरोपण एवं जलाशय विषयक नीतिवचन (1)
by योगेन्द्र जोशी in धर्म, नीति, महाभारत, सूक्ति, Mahabharata, Morals, religion टैग्स: परलोक,मनुस्मृति, महाभारत, वृक्षरोपण की महत्ता, importance of tree plantation, Mahabharat,Manusmriti, the other world
महर्षि व्यासविरचित महाकाव्य महाभारत में एक प्रकरण है, जिसमें भीष्म पितामह महाराज युधिष्ठिर को प्रजा के हित में शासन चलाने के बारे में उपदेश देते हैं । यह प्रकरण कौरव-पांडव समाप्ति के बाद युधिष्ठिर द्वारा राजकाज संभालने के समय का है । इसी के अंतर्गत एक स्थल पर मृत्युशय्या पर आसीन भीष्म जलाशयों के निर्माण एवं वृक्षरोपण की आवश्यकता स्पष्ट करते हैं । ये बातें महाकाव्य के अनुशासन पर्व के अठावनवें अध्याय में वर्णित हैं । ३३ श्लोकों के उक्त अध्यायमें बहुत-सी बातें कही गई हैं । मैं अध्याय के अंतिम ८ श्लोकों को इस ब्लॉग में उद्धृत कर रहा हूं:
अतीतानागते चोभे पितृवंशं च भारत ।
तारयेद् वृक्षरोपी च तस्मात् वृक्षांश्च रोपयेत् ॥
(महाभारत, अनुशासन पर्व, अध्याय ५८, श्लोक २६)
(भारत! वृक्ष-रोपी अतीत-अनागते च उभे पितृ-वंशं च तारयेद्, तस्मात् च वृक्षान् च रोपयेत् ।)
अर्थ - हे युधिष्ठिर! वृक्षों का रोपण करने वाला मनुष्य अतीत में जन्मे पूर्वजों, भविष्य में जन्मने वाली संतानों एवं अपने पितृवंश का तारण करता है । इसलिए उसे चाहिए कि पेड़-पौंधे लगाये ।
तारयेद् वृक्षरोपी च तस्मात् वृक्षांश्च रोपयेत् ॥
(महाभारत, अनुशासन पर्व, अध्याय ५८, श्लोक २६)
(भारत! वृक्ष-रोपी अतीत-अनागते च उभे पितृ-वंशं च तारयेद्, तस्मात् च वृक्षान् च रोपयेत् ।)
अर्थ - हे युधिष्ठिर! वृक्षों का रोपण करने वाला मनुष्य अतीत में जन्मे पूर्वजों, भविष्य में जन्मने वाली संतानों एवं अपने पितृवंश का तारण करता है । इसलिए उसे चाहिए कि पेड़-पौंधे लगाये ।
तस्य पुत्रा भवन्त्येते पादपा नात्र संशयः ।
परलोगतः स्वर्गं लोकांश्चाप्नोति सोऽव्ययान् ॥
(पूर्वोक्त, श्लोक २७)
(एते पादपाः तस्य पुत्राः भवन्ति अत्र संशयः न; परलोक-गतः सः स्वर्गं अव्ययान् लोकान् च आप्नोति ।)
अर्थ - मनुष्य द्वारा लगाए गये वृक्ष वास्तव में उसके पुत्र होते हैं इस बात में कोई शंका नहीं है । जब उस व्यक्ति का देहावसान होता है तो उसे स्वर्ग एवं अन्य अक्षय लोक प्राप्त होते हैं ।
परलोगतः स्वर्गं लोकांश्चाप्नोति सोऽव्ययान् ॥
(पूर्वोक्त, श्लोक २७)
(एते पादपाः तस्य पुत्राः भवन्ति अत्र संशयः न; परलोक-गतः सः स्वर्गं अव्ययान् लोकान् च आप्नोति ।)
अर्थ - मनुष्य द्वारा लगाए गये वृक्ष वास्तव में उसके पुत्र होते हैं इस बात में कोई शंका नहीं है । जब उस व्यक्ति का देहावसान होता है तो उसे स्वर्ग एवं अन्य अक्षय लोक प्राप्त होते हैं ।
अधिकतर हिंदू पुनर्जन्म में विश्वास करते हैं । प्रायः सभी मानते हैं कि आत्मा अमर होती है और उसके जन्म का अर्थ है भौतिक शरीर धारण करना और मृत्यु उस देह का त्यागा जाना । मृत्यु पश्चात् वह इस मर्त्यलोक से अन्य लोकों में विचरण करती है जो उसके कर्मों पर निर्भर करता है और जहां उसे सुख अथवा दुःख भोगने होते हैं ।
मान्यता यह भी है कि देहमुक्त आत्मा का तारण या कष्टों से मुक्ति में पुत्र का योगदान रहता है । संस्कृत में पुत्र शब्द की व्युत्पत्ति इसी रूप में की गयी है । (पुंनाम्नो नरकाद्यस्मात्त्रायते पितरं सुतः । तस्मात्पुत्र इति प्रोक्तः स्वयमेव स्वयम्भुवा ॥ अर्थात् ‘पुं’ नाम के नरक से जिस कारण सुत पिता का त्रारण करता है उसी कारण से वह पुत्र कहलाता है ऐसा स्वयंभू ब्रह्मा द्वारा कहा गया है । – मनुस्मृति, अध्याय 9, श्लोक 138 ।) मेरा मानना है कि पुत्र शब्द व्यापक अर्थ में प्रयुक्त किया गया है, अर्थात् यह पुत्र एवं पुत्री दोनों को व्यक्त करता है, कारण कि पुत्री – स्त्रीलिंग – की व्युत्पत्ति भी वस्तुतः वही है । कई शब्द पुल्लिंग में इस्तेमाल होते हैं, किंतु उनसे पुरुष या स्त्री दोनों की अभिव्यक्ति होती है, जैसे मानव या मनुष्य अकेले मर्द को ही नहीं दर्शाता बल्कि मर्द-औरत सभी उसमें शामिल रहते हैं । आदमी या इंसान स्त्री-पुरुष सभी के लिए प्रयोग में लिया जाता है । मैं समझता हूं कि प्राचीन काल में पुत्र सभी संतानों के लिए चयनित शब्द रहा होगा। कालांतर में वह रूढ़ अर्थ में प्रयुक्त होने लगा होगा।
उपर्युक्त श्लोकों के भावार्थ यह लिए जा सकते हैं कि वृक्षों का लगाना संतानोत्पत्ति के समान है । वे मनुष्य की संतान के समान हैं, इसलिए वे मनुष्य के पूर्वजों/वंशजों के उद्धार करने में समर्थ होते हैं ।वृक्ष की तुलना संतान से की गयी है।
स्वर्ग/नरक की बातें विश्वसनीय हों या न हों, वृक्षों की महत्ता संदेह से परे है । आज के युग में जब मानवजाति परिवेश-पर्यावरण की समस्याओं को वैश्विक स्तर पर झेल रही है, वृक्षों की उपादेयता सहज रूप से अनुभव होने लगी है ।
इस शृंखला के शेष श्लोकों का उल्लेख आगामी आलेखों में – योगेन्द्र जोशी
‘लोकः अहितम् आचरति इति चित्रम्’ – मानवजीवन की विडंबनाओं पर भर्तृहरि के वचन
by योगेन्द्र जोशी in Uncategorized टैग्स: जीवन दर्शन, भर्तृहरि, वैराग्यशतकम्, शतकत्रयम् Shatakatram, Bhartrihari, Philosophy of life, Vairagyashatam
राजा भर्तृहरि एक कवि के रूप में भी विख्यात रहे हैं । उनके विषय में मैंने संक्षेपतः अन्यत्र लिखा है । उनके द्वारा विरचित तीन रचनाएं चर्र्चित रही हैं । वे हैं: नीतिशतक, शृंगारशतक, एवं वैराग्यशतक । ये तीनों मिलकर शतकत्रय के नाम से भी जाने जाते हैं । इनकी विषयवस्तु नाम के अनुरूप ही है । कहते हैं कुछएक अप्रिय अनुभवों के फलस्वरूप वे जीवन से विरक्त हो गये थे । वैराग्यशतक कदाचित् उन्हीं अनुभवों से प्रेरित कृति है । इसमें उन्होंने जीवन की नश्वरता का वर्णन किया है । मैं उनकी रचना के दो श्लोकों का यहां पर उल्लेख कर रहा हूं:
व्याघ्रीव तिष्टति जरा परितर्जयन्ती रोगाश्च शत्रव इव प्रहरन्ति देहम् ।
आयुः परिस्रवति भिन्नघटादिवाम्भो लोकस्तथाप्यहितमाचरतीति चित्रम् ॥
(भर्तहरिविरचित वैराग्यशतक, श्लोक 109)
(व्याघ्री इव तिष्टति जरा परि-तर्जयन्ती, रोगाः च शत्रवः इव प्रहरन्ति देहम्, आयुः परि-स्रवति भिन्न-घटात् इव अम्भः, लोकः तथा-अपि अहितम् आचरति इति चित्रम् ।)
आयुः परिस्रवति भिन्नघटादिवाम्भो लोकस्तथाप्यहितमाचरतीति चित्रम् ॥
(भर्तहरिविरचित वैराग्यशतक, श्लोक 109)
(व्याघ्री इव तिष्टति जरा परि-तर्जयन्ती, रोगाः च शत्रवः इव प्रहरन्ति देहम्, आयुः परि-स्रवति भिन्न-घटात् इव अम्भः, लोकः तथा-अपि अहितम् आचरति इति चित्रम् ।)
अर्थः मानव जीवन में बुढ़ापा दहाड़ती हुई बाघिन की तरह सामने आ धमकती है । विविध रोग शत्रुओं की भांति शरीर पर प्रहार करते हैं । जैसे दरार पड़े घड़े से पानी रिसता है वैसे ही आयु हाथ से खिसकती रहती है । आश्चर्य होता है इतना सब होते हुए भी लोग अहितकर कर्मों में लिप्त रहते हैं ।
कवि इस बात पर आश्चर्य करता है कि मानव-जीवन वस्तुतः क्षणभंगुर है और मानव देह का क्षरण शनैः-शनैः होता रहता है । हमारे वास कुछ भी सार्थक करने के लिए बहुत समय नहीं होता है । जो सीमित समय मिलता है उसे स्वार्थलिप्सा में बिता देता है, मानो कि वह अजर-अमर हो और संचित धनसंपदा का भोग करता ही रह सकता है । क्यों नहीं कुछ परोपकार या अन्यथा कुछ और समाजहित में करता है ? मनुष्य अपने हितों में ही प्रायः संलग्न रहता है यह बात आज के समय में तो हम देख हर रहे हैं । लगता है कि ऐसा अनादि काल से चला आ रहा है । महाकाव्य महाभारत में वर्णित ‘यक्ष प्रश्न’ इसी तथ्य की ओर संकेत करता है (इसे यहां पढ़ें) ।
सृजति तावदशेषगुणाकरं पुरुषरत्नमलङ्करणं भुवः ।
तदपि तत्क्षणभङ्गि करोति चेदहह कष्टमपण्डितता विधेः ॥
(वैराग्यशतक, श्लोक 110)
(सृजति तावत् अशेष-गुण-आकरम् पुरुष-रत्नम् अलङ्करणं भुवः, तत् अपि तत्-क्षण-भङ्गिः करोति चेत् अहह कष्टम् अपण्डितता विधेः ॥)
तदपि तत्क्षणभङ्गि करोति चेदहह कष्टमपण्डितता विधेः ॥
(वैराग्यशतक, श्लोक 110)
(सृजति तावत् अशेष-गुण-आकरम् पुरुष-रत्नम् अलङ्करणं भुवः, तत् अपि तत्-क्षण-भङ्गिः करोति चेत् अहह कष्टम् अपण्डितता विधेः ॥)
अर्थः विधाता प्रथमतः मनुष्य को सभी गुणों की खान एवं धरती के आभूषण रत्न-स्वरूप रचता है, और फिर उसे भी क्षणभंगुर बना देता है । विधाता की इस विस्मयकारी मूर्खता को कष्ट से ही देखना होता है ।
ऐसी मान्यता है कि मानव की रचना ही विधाता की सर्वश्रेष्ठ कृति है । उसे बुद्धि और विवेक प्राप्त है, भले ही वह बुद्धि के प्रयोग तक सीमित रहकर स्वार्थसिद्धि में लगा रहता है और विवेक से उचितानुचित का निर्णय नहीं करता है । ऐसे मनुष्य को तरह-तरह के विकारों से ग्रस्त करते हुए विधाता अंत में काल के गाल में भेज देता है । ऐसा क्रूर मजाक अपनी ही उत्कृष्ट कृति के साथ क्यों करता है वह इस बात पर कवि आश्चर्य व्यक्त करता है ।
जो ईश्वर में विश्वास करते हैं उनके लिए यह गंभीर प्रश्न है । उन्हें समय निकाल कर कभी इस पर मनन करना चाहिए कि उनके क्रियाकलाप क्या उनके विश्वास के अनुरूप रहते हैं । (हर कोई ईश्वर में विश्वास नहीं करता है !) – योगेन्द्र जोशी
कौटिलीय अर्थशास्त्र का मत (2) – धन के गबन का पता करना असंभव-सा
by योगेन्द्र जोशी in नीति, राजनीति, शासन, संस्कृत-साहित्य, सूक्ति, Government, Morals, Politics,Sanskrit Literature टैग्स: कौटिलीय अर्थशास्त्र, कौटिल्य, चाणक्य, धन का अपहरण, भ्रष्टाचार,राजकीय कर्मचारी, Chanakya, corruption, embezzlement, government employee, Kautiliya Arthashastra, Kautilya
इस ब्लॉग की पिछली प्रविष्टि में मैंने सरकारी धन के दुरुपयोग के संदर्भ में कौटिल्य (चाणक्य) के विचारों का आंशिक उल्लेख किया था । इस आलेख में उसी सिलसिले में अन्य तीन श्लोकों की मैं चर्चा कर रहा हूं ।
अपि शक्या गतिर्ज्ञातुं पततां खे पतत्त्रिणाम् ।
न तु प्रच्छन्नभावानां युक्तानां चरतां गतिः ॥
(कौटिलीय अर्थशास्त्र, प्रकरण 25 – उपयुक्तपरीक्षा)
(खे पततां पतत्त्रिणाम् गतिः ज्ञातुं अपि शक्या, प्रच्छन्न-भावानां चरतां युक्तानां गतिः तु न ।)
न तु प्रच्छन्नभावानां युक्तानां चरतां गतिः ॥
(कौटिलीय अर्थशास्त्र, प्रकरण 25 – उपयुक्तपरीक्षा)
(खे पततां पतत्त्रिणाम् गतिः ज्ञातुं अपि शक्या, प्रच्छन्न-भावानां चरतां युक्तानां गतिः तु न ।)
अर्थः आकाश में उड़ते-विचरते पक्षियों की गति को समझना (कि वे किस दिशा में आगे बढ़ेंगे या चक्कर लगाने लगेंगे, आदि) संभव है, किंतु राजकाज में नियुक्त व्यक्ति के मन में (धन लूटने, उसके दुरुपयोग करने, आदि) छिपे भावों को जान पाना संभव नहीं ।
सरकारी धन के दुरुपयोग के बारे किसी शासकीय कर्मी की योजना का पता कोई नहीं कर सकता । दुरुपयोग हो चुकने पर ही पता चलता है कि उसने क्या-क्या हथकंडे अपनाए होंगे ।
आस्रावयेच्चोपचितान् विपर्यस्येच्च कर्मसु ।
यथा न भक्षयन्त्यर्थं भक्षितं निर्वमन्ति वा ॥
(यथा पूर्वोक्त)
(कर्मसु उपचितान् च आस्रावयेत्, विपर्यस्येत् च, यथा अर्थं न भक्षयन्ति, भक्षितं वा निर्वमन्ति ।)
यथा न भक्षयन्त्यर्थं भक्षितं निर्वमन्ति वा ॥
(यथा पूर्वोक्त)
(कर्मसु उपचितान् च आस्रावयेत्, विपर्यस्येत् च, यथा अर्थं न भक्षयन्ति, भक्षितं वा निर्वमन्ति ।)
अर्थः (राजा का कर्तव्य है कि गबन करने वाले) राजकार्य में नियुक्त व्यक्तियों की संपदा छीन ले और उन्हें निम्नतर पदों पर अवनत कर दे, ताकि वे राज्य-धन न डकार पावें तथा उदरस्थ किये गये को उगल दें ।
मंतव्य यह है कि भ्रष्ट राज्यकर्मी को दंडित किया जाए । सबसे सार्थक एवं भयोत्पादक दंड यही है उसकी संपदा छीन ली जाए, ताकि उसे लेने के देने पड जाएं । दुर्भाग्य से अपने मौजूदा शासकीय व्यवस्था में आर्थिक अपराधी मुश्किल से ही कभी दंडित होते हैं । दंड के अभाव में उनके हौसले बुलंद रहते हैं ।
न भक्षयन्ति ये त्वर्थान् न्यायतो वर्धयन्ति च ।
नित्याधिकाराः कार्यास्ते राज्ञः प्रियहिते रताः ॥
(यथा पूर्वोक्त)
(ये तु अर्थान् न भक्षयन्ति, न्यायतः वर्धयन्ति च, राज्ञः प्रिय-हिते रताः ते नित्य-अधिकाराः कार्याः ।)
नित्याधिकाराः कार्यास्ते राज्ञः प्रियहिते रताः ॥
(यथा पूर्वोक्त)
(ये तु अर्थान् न भक्षयन्ति, न्यायतः वर्धयन्ति च, राज्ञः प्रिय-हिते रताः ते नित्य-अधिकाराः कार्याः ।)
अर्थः जो शासकीय धन नहीं हड़पते बल्कि उचित विधि से उसकी वृद्धि करते हैं, राजा के हित में लगे रहने वाले ऐसे राज्यकर्मियों को अधिकार-संपन्न पदों पर नियुक्त किया जाना चाहिए ।
राज्यकर्मी की नियुक्ति की योग्यता का एक आवश्यक पहलू है उसकी निष्ठा । महज शैक्षिक योग्यता राज्यहित नहीं साधती है । शासन को चाहिए कि वह व्यक्ति की नीयत एवं राज्य के प्रति कर्तव्यशीलता को ध्यान में रखते हुए उसे नियुक्त करे । हमारी व्यवस्था में कागजी योग्यता ही सर्वोपरि समझी जाती है । उसका चारित्रिक आकलन शायद ही कहीं किया जाता है । सर्वत्र व्याप्त आर्थिक भ्रष्टाचार इस बात का प्रमाण है । – योगेन्द्र जोशी
कौटिलीय अर्थशास्त्र का मत (1) – शासकीय धन का अपहरण राजकर्मियों का स्वभाव है
by योगेन्द्र जोशी in नीति, राजनीति, शासन, संस्कृत-साहित्य, Government, Morals, Politics,Sanskrit Literature टैग्स: कौटिलीय अर्थशास्त्र, कौटिल्य, चाणक्य, धन का अपहरण, भ्रष्टाचार,राजकीय कर्मचारी, Chanakya, corruption, embezzlement, government employee, Kautiliya Arthashastra, Kautilya
कौटिल्य सुविख्यात ऐतिहासिक पुरुष चाणक्य का वैकल्पिक नाम है । चाणक्य के बारे में दो-चार परिचयात्मक शब्द पहले कभी मैंने इसी ब्लॉग में लिखे हैं । उनका परिवार-प्रदत्त असली नाम विष्णुदत्त था किंतु चणक के पुत्र होने के नाते वे चाणक्य नाम से ही विख्यात हुए । कुटिल राजनीतिमें पारंगत होने के कारण उन्हें कौटिल्य नाम से भी संबोधित किया जाता है । एक बात पर विशेष ध्यान देना चाहिए कि चाणक्य की राजनीति उस अर्थ में कुटिल नहीं थी जिस रूप में हमें आजकल देखने को मिल रही है । अपने वैयक्तिक हित साधने में उन्होंने कुटिल मार्ग अपनाया हो ऐसा मैं नहीं मानता । चातुर्यपूर्ण राजनीति का समाज एवं राष्ट्रहित में उन्होंने भरपूर प्रयोग किया और यही औसत आदमी की दृष्टि में कुटिलता थी ।
कौटिलीय अर्थशास्त्र चाणक्य की एक कृति है जिसमें उन्होंने राजकाज की कारगर व्यवस्था कैसी होनी चाहिए इसका वर्णन किया है । राजा ने जनहित में क्या करना चाहिए एवं क्या नहीं इसका उल्लेख किया है । चाणक्य ने ईसा से करीब 320 वर्ष पूर्व चंद्रगुप्त मौर्य का शासन स्थापित किया था । यूनानी शासक सिकंदर उनका समकालीन था । बाद में उसी मौर्य कुल में अशोक महान सम्राटहुए थे । उस काल की व्यवस्था राजा-केंद्रित थी और परिस्थितियां आज से सर्वथा भिन्न थीं । अतः कौटिलीय अर्थशास्त्र की समस्त बातें आज के युग के लिए बहुत अर्थ नहीं रखती हैं । फिर भी उसमें ऐसी बहुत-सी बातें पढ़ने को मिल जाती हैं जो काफी महत्व की हैं । अधोलिखित पाठ में मैंने कौटिल्य के उन वचनों का उल्लेख किया है जो यह स्पष्ट करते हैं कि कैसे शासकीय कार्य के लिए नियत धन राजकर्मियों द्वारा ‘लूटी’ जाती है और उसका पता तक नहीं चल पाता है । तत्संबंधित दो श्लोक आगे दिए गए हैं:
यथा ह्यनास्वादयितुं न शक्यं जिह्वातलस्थं मधु वा विषं वा ।
अर्थस्तथा ह्यर्थचरेण राज्ञः स्वल्पोऽप्यनास्वादयितुं न शक्यः ॥
(कौटिलीय अर्थशास्त्र, प्रकरण 25 – उपयुक्तपरीक्षा)
(यथा हि जिह्वा-तल-स्थं मधु वा विषं वा अन्-आ-स्वादयितुं न शक्यं, तथा हि राज्ञः अर्थ-चरेण स्वल्पः अर्थः अपि अन्-आ-स्वादयितुं न शक्यः ।) (अन्-आ-स्वादयितुं = न आस्वादयितुं)
अर्थस्तथा ह्यर्थचरेण राज्ञः स्वल्पोऽप्यनास्वादयितुं न शक्यः ॥
(कौटिलीय अर्थशास्त्र, प्रकरण 25 – उपयुक्तपरीक्षा)
(यथा हि जिह्वा-तल-स्थं मधु वा विषं वा अन्-आ-स्वादयितुं न शक्यं, तथा हि राज्ञः अर्थ-चरेण स्वल्पः अर्थः अपि अन्-आ-स्वादयितुं न शक्यः ।) (अन्-आ-स्वादयितुं = न आस्वादयितुं)
अर्थः जिस प्रकार जीभ पर पड़ा मधु (शहद या मधुर खाद्य पदार्थ) अथवा विष (घातक या कष्टप्रद अखाद्य) पदार्थ का स्वाद लिये बिना रहना असंभव है, उसी प्रकार का कल्याण-कार्य में नियुक्त कर्मी के लिए योजना हेतु प्रदत्त धन के एक अंश का स्वाद लिए बिना रह पाना मुश्किल है ।
तात्पर्य यह है कि जब किसी अधिकारी को योजना के लिए धन मिलता है तो उसकी लार टपकने लगती है, और वह उसमें से चुंगी निकालकर अपनी जेब में डालने की कोशिश करता है । यह प्रवृत्ति मनुष्य में सदा से ही रही है । खर्च को थोड़ा बढ़ाचढ़ाकर दिखाने और वास्तविक खर्च कुछ कम करके पैसा बटोरने का रास्ता सदा से अपनाया जाता रहा है । दुर्भाग्य से आजकल हालत यह हो चुकी है कि कागज पर कार्य दिखाकर पूरा पैसा हजम करने में भी अब लोगों को लज्जा नहीं आती । देश में व्याप्त भ्रष्टाचार के हाल सभी के समक्ष है ।
मत्स्या यथान्तःसलिले चरन्तो ज्ञातुं न शक्याः सलिलं पिबन्तः ।
युक्तास्तथा कार्यविधौ नियुक्ता ज्ञातुं न शक्या धनमाददानाः ॥
(यथा पूर्वोक्त)
(यथा अन्तः-सलिले चरन्तः मत्स्याः सलिलं पिबन्तः ज्ञातुं न शक्याः, तथा कार्य-विधौ युक्ताः नियुक्ताः धनम् आददानाः ज्ञातुं न शक्याः ।)
युक्तास्तथा कार्यविधौ नियुक्ता ज्ञातुं न शक्या धनमाददानाः ॥
(यथा पूर्वोक्त)
(यथा अन्तः-सलिले चरन्तः मत्स्याः सलिलं पिबन्तः ज्ञातुं न शक्याः, तथा कार्य-विधौ युक्ताः नियुक्ताः धनम् आददानाः ज्ञातुं न शक्याः ।)
अर्थः जिस प्रकार यह जान पाना संभव नहीं हो पाता है कि कब तालाब के चल में तैरती मछलियां पानी पा रही हैं और बक नहीं, उसी प्रकार राजकीय कार्य में लगाये गए कर्मचारी के बारे में यह पता लगा पाना मुश्किल होता है कि वह कब धन हड़प रहा है ।
शासकीय कार्य का धन शासन द्वारा नियुक्त कर्मचारियों के हाथों में होता है । वे कब किस प्रकार उसे खर्च कर रहे हैं इसका पता सरलता से नहीं लगता है । उनकी हरकतों पर नजर रखने के लिए जांच-पड़ताल वाली संस्थाएं जरूर होती हैं । किंतु वे हर क्षण नजर नहीं रखती हैं । अधिकांशतः सब कुछ कर्मचारियों के विवेक एवं निष्ठा पर टिका रहता है । इसी का लाभ उठाकर वे स्वयं को सोंपे गये धन का अपव्यय कर डालते हैं । इस अपव्यय का पता चलाना और उसे सिद्ध कर पाना कितना पेचीदा होता है यह हम देख ही रहे हैं । – योगेन्द्र जोशी
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