तिरुवाचकम् --२६ --३०
विण णिरैंतु ---आकाश बन कर व्यापित
मण णिरैंतु =मिट्टी बनकर व्यापित
मिक्काय विलंगोलियाय = महान बनकर सहज रूप में प्रकाश रूप
एंनिरन्त ==मन लांघकर
तेल्लै इलातावन = असीम
निन पेरुंचीर = तेरी अति विशेषता को
पोल्ला विनै येन पुकलुमा रोन्ररियेन = बुरे कर्म किये मैं ,तेरे यशोगान करना नहीं जानता।
मानिक्कावासकर आकाश और भूमि में व्यापित
ईश्वर को पंच भूतगणों में व्यापित मानते हैं ;
वे खुद नहीं जानते कि सर्वेश्वर की प्रशंसा कैसे करें।
पुल्लाहिप पूड़ाय पुलुवाय मरमाहिप = घास -फूस ,कीड़े-मकोड़े , पेड़
पल विरुक माकीप परवैयायप पाम्बाहिक -- नाना प्रकार के पशु -पक्षी ,सांप ,
कल्लाय मनिताराय्प पेयाय गणंगलाय =पत्थर ,मनुष्य ,भूत-प्रेत ,पंच भूत गण
वल्लरसुराहि मुनिवरायत् देवरायच -महाबली राक्षस असुर ,मुनि -देव
चेल्ला अ निंरा इत्तावर जंगमत्तुल --आदि से गतिशील इस जड़ -चेतन की सृष्टियों में
एल्लाप पिरप्पुम पिरंतिलैत्तेन एम्पेरुमान --सभी जन्म लेकर दुर्बल गो गया हूँ।
मेय्ये युन पोन्नडिकल कंडिनॄ वीडुपेट्रेन। --वास्तव में तेरे स्वर्ण चरण शोभित चरण देखकर मुक्ति पा लिया।
कवि ईश्वर शिव के चरणों से मुक्ति पाने को
जीव -वास्तु वैज्ञानिक दृष्टी से समाज के विकास में घास से लेकर देव तक की सृष्टि क्रम को खूब चित्रण करते हैं.
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