न जाने कब क्या होता है ?
हम सोचते एक ,
उसे सब सोचते और ठीक समझते तो
खुश होते हम,
मना करें तो मन में होता शोक.
जब तक होता हमारे प्रकाशन
तब तक खुशियाँ;
अचानक करते डी आक्टिवेट
उनके नियम तो ठीक
पर न जाने मित्र मंडली में पूछ-ताछ
क्या हुआ अडमिन ने तेरे पोस्ट कर दिए निकाल.
क्या करूँ,मुझे तो बेडजे मिलें
सोच रहा था देते हैं प्रोत्साहन;
अचानक निकल दिए
तभी गीता सांत्वना देती है:-
जो हुआ .अच्छा ही हुआ ;
जो होगा अच्छा ही होगा.
जो लिखा ,उनके लिए पहले १९७ पोस्ट तक अच्छा ही लगा
अ डी मिन को न जाने
किसकी नज़र पडी
निकाले गए सब;
केवल एक बार पुनः प्रकाशित करते तो
एक नक़ल निकाल लेता :
सीधे टंकण करने से पता नहीं क्या लिखा,
हत्यारे को भी मौका मिलते ;
सीधे सादे लेखक को तो कड़ी सजा?!!
क्या पाइंट्स दे क्या हम स्विस बैंक में काले धन जमा कर लेंगे
या मालामाल बन जायेंगे:
बेचारे हम अपने मनो भाव करते अभिव्यंजित.
हमें पायिन्ट्स की क्या ज़रुरत ?
ऐसी गलत फहमी से निकाल दिए speaking tree से.
जो हुआ अच्छा ही हुआ;
जो होगा अच्छा ही होगा.
सर्वेश्वर का ध्यान है साथ देने ;
हम नहीं जानते छल -कपट;
हम नहीं चाहते धन दौलत ;
केवल इतना चाहते मन के भाव प्रकट करने दें.
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