3811. दुख विमोचन के लिए ज्ञान और वैराग्य होना चाहिए। प्रपंच विषय वस्तुओं के पीछे जाकर विषय वस्तुओं को मन में रखकर पूजा अर्चना करनेवाले बंध मोक्ष की कोशिश करना जीवन को व्यर्थ करना ही है। कारण आत्म ज्ञान के लिए मुख्य रूप में विषय वैराग्य और उद्वेग मोक्ष मिलने की इच्छा चाहिए। विषय इच्छाएँ और शारीरिक अभिमान जब ज्ञान की बाधाएँ बनती है, उनको मिटाये बिना मुक्ति चाहने से कोई लाभ नहीं है। विषय वैराग्य अति शक्तिशाली अभ्यास है। विषय वैराग्य होना है तो गुरु के उपदेश के द्वारा, सत्य की खोज के द्वारा जान-समझ लेना है कि सांसारिक विषय नश्वर है, आत्मा अनश्वर है। स्वयं शरीर नहीं है,आत्मा है। इस आत्मज्ञान को बुद्धि में दृढ बना लेना चाहिए। तभी अपने प्राण जैसे सभी जीवों से प्यार करके भेद बुद्धि रहित, राग-द्वेष रहित एकात्म बुद्धि से आत्मा के स्वभाव शांति और आनंद को निरंतर, नित्य रूप में अनुभव कर सकते हैं।
3813. जीवन में सभी प्रकार के दुखों के कारण सबको विदित है मन ही । यथार्थ में वह मन आत्मा से भिन्न नहीं है। अर्थात् हल्की रोशनी में एक रस्सी को साँप सोचकर डरकर दीप जलाकर देखने पर रस्सी को साँप समझने का भ्रम दूर होगा। तभी साँप का भय दूर होगा। वैसे ही आत्मा बने मैं रूपी अखंडबोध में दृष्टित एक भ्रम ही मन है। भ्रम बदलते समय अर्थात् आत्मज्ञान रूपी प्रकाश बोध को छिपाने वाले भ्रम मन के मिटते ही शरीर से खंडित बोध अखंड में बदलेगा। स्वयंभू अखंड बोध को कोई पर्दा नहीं ढकेगी। देखनेवाले सबको एक आत्मा के रूप में एहसास कर सकते हैं। सभी दृश्यों के कारण मन ही है। मन नहीं है तो और कुछ भी नहीं रहेगा। वैसे ही सभी वासनाओं के कारण अहंकार ही है। इसलिए मन और अहंकार के मिट जाने पर आत्मतत्व अर्थात् अखंडबोध अर्थात मैं रूपी सत्य किसी भी प्रकार के पट के बिना चमकेगा। वही अहमात्मा अनादी काल से उज्ज्वलतम परमात्मा बने बोध को अर्थात् उसके अखंड को जो एहसास करता है, वही अखंडबोध बने पूर्ण ब्रह्म है।
3814. जो कोई आत्मज्ञान रूपी पूर्ण पवित्र मार्ग का अनुसरण करता है, वही परमानंद का पात्र बनता है। अंत में वह गुणातीत निर्गुण परब्रह्म ज्ञानप्रकाश परंज्योति परमानंद स्वरूप में खडा रहेगा। वही भगवान है। ईश्वर का स्वभाव परमानंद है। जो अपने को परमात्मा स्वरूप एहसास करते हैं,वे सब परमानंद स्वरूप है। मृगमरीचिका जैसे पंचभूत पिंजडे के शरीर और मन दोनों बोध को छिपा देने से जीव का परमानंद नष्ट हुआ। जिसमें शरीर और मन को मृगमरीचिका जैसे देखने की क्षमता है,वे अति सरलता से शरीर और मन को त्यागकर अपने परमानंद स्वरूप को पुनःप्राप्त करके वैसा ही बन सकता है।
3815. जिसने आत्म तत्व को दृढ रूप में हृदय में एहसास किया है,वही भगवान है। उस भगवान को किसी भी प्रकार का संकल्प नहीं है। वैसे याचना करने के लिए दूसरा कोई न होने से किसी भी प्रकार की इच्छा नहीं है। आत्मा के सिवा दूसरी एक वस्तु किसी भी काल में नहीं है,यह जानना ही आत्मज्ञान होता है। भगवान के दो रूप भाव है, सामान्य रूप है और ब्रह्म रूप है। उदाहरण रूप में शंख चक्र गदा पद्म धारण किये चार भुजोंवाले महा विष्णु स्वरूप है। उसीको सामान्य स्वरूप कहते हैं। उसी समय एकात्मक अनादी अंत रहित अव्यक्त ब्रह्म स्वरूप अर्थात् अर्थात् अखंडबोध स्वरूप है। वही दूसरा परम भाव है।
आत्मज्ञान सीखकर आत्मज्ञानी बने बिना रहने के काल में महाविषिणु के पाद पर अपने को संपूर्ण रूप में समर्पण करके जप करके, कीर्तन गाकर,ध्यान करके,पूजा करके उपासना करनी चाहिए। रोज वैसा करते समय कालांतर में आत्मज्ञान होकर एहसास करना है कि स्वयं शरीर नहीं है, परमात्मा बने आदी अंत रहित अखंडबोध बने ब्रह्म स्वरूप में से न हटकर रहने से ब्रह्म के स्वभाव परमानंद को अपने स्वभाविक रूप से अनुभव करके वैसा ही रह सकता है।
3816. पहले अद्वैतबोध स्थिर खडे रहने के लिए एहसास करना चाहिए कि स्वयं शरीर नहीं है, अपने शरीर को आधार रूप अखंडबोध ही है। अर्थात् शरीर जड है, जड कर्म है,कर्म चलनशील है। वह चलन निश्चलन बोध रूप बने परमात्मा में कभी नहीं होगा। इसलिए शरीर,मन, शरीर देखनेवाला संसार चलन स्वभाव होने से वह रेगिस्तान में दिखाईपडनेवाली मृगमरीचका ही है। उसकी एक वास्तविक स्थिति कभी कहीं हो सकती। यही शास्त्र सत्य है। अर्थात् सबके परम कारण स्वरूप मैं रूपी अखंडबोध नित्य सत्य अनिर्वचनीय शांति और परमानद क साथ
स्थिर खडा रहता है।
3817. जो भिंड को सही रूप में समझ लेता है,उसको अंड को समझने में कोई कठिनाई नहीं होगी। जिसमें आत्मबोध है,उसको यह कहने में कोई कठिनाई न होगी कि हम जिस अंतरिक्षलोक और भूलोक को देखते हैं,वह प्रपंच अपने से ही उतपन्न हुए हैं।कारण आत्म बोध नहीं है तो यह संसार नहीं है।अर्थात् बोध नहीं है,कहने के लिए भी बोध की आवश्यक्ता होती है। इस वात को समझाने के लिए ही एक गुरु की आवश्यक्ता होती है कि आत्मबोध होने से ही लगता है कि सब कुछ है और जो कुछ देखते हैं,सुनते हैं, अनुभव करते हैं, वे अखंडबोध सत्य है। यह समझने के लिए अनेक जन्म लेना पडेगा कि गुरु से मिले बिना स्वयं अखंडबोध है, क्योंकि माया के पर्यवेक्षण के इंद्रजाल प्रपंच की शक्ति अति बलवती है। प्रपंच रूपी भ्रम से साधारण जनता को बाहर आना मुश्किल है। लेकिन विवेकी के लिए आसान है।विवेक रहित मिथ्या संकल्प लेकर जीनेवाला ही दुखी बनता है। लेकिन विवेकी में मिथ्या संकल्प न होने से उसको दुख होने के कोई कारण नहीं है। शास्त्र सत्य अथवा मैं रूपी आत्म बने अखंड बोध ही नित्य सत्य रूप में है। इस शास्त्र सत्य को याद में लाकर मृगमरीचिका जैसे दीख पडनेवाले मिथ्या रूपी इस संसार को तजकर सभी प्रकार की शांति और आनंद निरुपाधिक कर सकता है। अर्थात् अनिर्वचनीय शांति और आनंद को प्राप्त करेगा।
3818. हमें मालूम नहीं है कि संसार का बनना और स्थिर रहना कैसा है? अतः उसे मन से नकारात्मक करने के लिए अर्थात् संसार को मन से हटाने के लिए अर्थात् मन को आत्मा में लय करने के लिए कई प्रकार के प्रयत्न करना पडता है।यह बरह्मांड यह प्रपंच बिना किसी भी प्रकार के कारण से बना है। वह अकारण है। कारण रहित कार्य असत्य ही है। अर्थात् इस संसार के कारण संसार ही है। और कोई कारण नहीं है। ब्रह्म से अर्थात् निश्चलन सर्वव्यापी परमात्मा से दूसरा एक चलन किसी भी काल में हो ही नहीं सकता। इसलिए संसार बनने ब्रह्म किसी भी काल में हो नहीं सकता।लेकिन इस ब्रह्म से ही इस संसार उत्पन्न हुआ-सा दीख पडता है। ब्रह्म से उत्पन्न होकर दीख पडनेवाले प्रपंच भ्रम सिवा भ्रम के और कुछ नहीं है। अर्थात् रेगिस्तान में बनकर दीख पडनेवाले मृगमरीचिका दृश्य के लिए कोई कारण नहीं है। वह मृगमरीचिका कारण रहित कार्य ही है। यह सत्य है कि रेगिस्तान में पानी नहीं है। लेकिन रेगिस्तान में दीख पडनेवाली मृगमरीचिका के कारण मृगमरीचिका ही है। लेकिन रेगिस्तान के बिना
कारण रहित दीख पडनेवाले कार्य रूपी पानी का दृश्य रेगिस्तान होने से ही दीखता है। लेकिन वह दृश्य रेगिस्तान से अन्य कोई नहीं है। रेगिस्तान से अन्य स्वअस्तित्व उसको नहीं है। वह रेगिस्तान का स्वभाव ही है। वैसे ही प्रपंच दृश्य कारण रहित कार्य होने पर भी परमात्म स्वभाव ही भ्रम बने प्रपंच है। लेकिन बोध से न मिले प्रपंच को एक स्व अस्तित्व नहीं है। इसलिए बोध में दीख पडनेवालेप्रपंच भ्रम भी बोध ही है। बोध मात्र ही है।
3819. गृहस्थ जीवन बितानेवाली स्त्री पुरुष किसी भी काल में स्थाई शांति और स्थाई आनंद की प्रतीक्षा बेकार है। वह किसी भी काल में पूरा नहीं होगा। कारण वह भेद बुद्धि बनाकर आत्मा को विस्मरण कराके आत्मानुभूति के मार्ग की बाधा बनेगी। शांति और आनंद आत्मस्वभाव है। यह जानकर भी वे बंधन की भेद बुद्धि द्वारा होनेवाले कामक्रोध,राग-द्वेष आदि आत्म स्वरूप को विस्मरण कराकर मन को निम्न स्थिति की ओर ले आने के लिए ही उपयोग होगा। जो भी जहाँ भी हो ,जैसा भी हो, जिस स्थिति में भी हो, अपनी माया रूपी शरीर और संसार नहीं है।उसके साक्षी रूप है आत्मा। इस बात को बिना कोई संदेह के महसूस कर लेना चाहिए। फिर आत्मा के स्वभाविक परमानंद को निरुपाधिक रूप में स्वयं अनुभव न करके ,अपने को स्वयं आत्मा के अनुभव जो नहीं करता,उसको कभी शांति और आनंद स्वप्न में भी नहीं मिलेगा।
3820. जो कोई आत्मबोध से एक मिनट भी तैलधारा जैसे निश्चल रहता है, उसको सुख मिलेगा।
3821.एक बच्चा भूमि में जन्म लेने तक मन उसकी आत्मा में लगा रहता है।
भूलोक में आने के बाद ही उस बच्चे के मन को माता चूमकर,दूध देकर, उसको उसके आत्मबोध से शारीरिक बोध को ले आता है। इसीलिए आत्मबोध के साथ जन्म लेनेवाले बच्चे दूसरों के स्पर्श करने की अनुमति न देंगे।आत्मबोध रहित जीव को उपयोग करके ही उसके माता-पिता उनकी इच्छाओं को पूर्ण कर लेते हैं। वह उनके अहंकार को संतुष्ट करता है। इसलिए जो बच्चे माता-पिता की बातें न मानकर शरीर और संसार को जानने और समझनेवाले विवेकी ही महान बनते हैं। जिनमें आत्मविचार करने की बुद्धि नहीं होती और प्रपंच विचार करते हैं,वे विचार उनको अंधकार में ले जाकर मृत्यु का पात्र बना देंगे।लेकिन आत्म को मात्र मुख्यत्व देकर सत्य को स्वीकार करके असत्य को त्यागनेवाले बच्चे ही ज्ञानी और परमहंस बनकर दुखी लोगों को शांति और आनंद देते हैं। वैसे लोग ही संसार की भलाई करेंगे। मिथ्या संसार की सांसारिक चिंतन करनेवाले स्वयं को और दूसरों को कोई कलयाण कार्य कर नहीं सकते। जो सोचते हैं कि आत्मबोध रहित संसार को सीधे करना चाहिए,वह मृगमरीचिका के समान बेकार ही है। पंचेंद्रियों को संयम करके ही योगी एकांत जीवन जीते हैं।
3822. स्वर्ग में देवेंद्र सुधबुध खोकर विषय भोगों में रम जाने से देवेंद्र को उन बुरी आदतों से छुडाने के लिए उसके मन को आत्मोन्मुख करने के लिए ही त्रिदेव तपस्वी असुरों को उनके मन चाहा वर देते थे। लेकिन वर प्राप्त करने के बाद असुर लोग अहंकार वश ईश्वर को भूलकर देवलोक जाकर देवेंद्र को सिंहासन से निकाल देते थे। वे नहीं जानते थे कि वर में उनका नाश छिपा रहते थे। देवेंद्र पद की आपत्ति के आने के बाद ही विवेक होता है कि वे भगवान को भूल गये हैं।देवेंद्र तपस्या करके पुनःईश्वर विचार करने पर असुरों का नाश करके पुनः सिंहासन पर बैठते थे।ऐसे ही सांसारिक राजनैतिक संघर्ष अनादी काल से चलते रहते हैं।मैं रूपी अखंडबोध में अपनी शक्ति मनोमाया अकारण आकर बोध को छिपाकर दिखानेवाले मनोविलास ही यह प्रपंच है। इस प्रपंच में ही काल,देश,वस्तु आदि अनुभव जन्म-मृत्यु सब कुछ चलता रहता है। ये सब मन का एक इंद्रजाल प्रकटीकरण मात्र है। अर्थात् एक अल्पकाल में अनेक काल जीने के स्वप्न अनुभव जैसे ही अज्ञान निद्रा इस जागृत अवस्था में जन्म लेकर जीनेवाले आयु, अनुभव, वस्तुएँ ,जीव आदि को बनाकर दिखाना मन का तंत्र है। वह इस प्रपंच बोध का दृश्य मात्र है। अर्थात् यह प्रपंच मन से भिन्न नहीं है। मन ही संसार के रूप में चमकता है। मैं है को अनुभव करके स्वयं बने अखंडबोध स्वरूप की परमात्म शक्ति ही यह मन है। स्वयंभू अखंड बोध मात्र ही एकात्मक है, नित्य सत्य रूप में स्थिर खडा रहता है। उनमें दीख पडनेवाले सभी नाम रूप उसके कारण बने मन रेगिस्तान की मृगमरीचिका जैसे भ्रम के सिवा सत्य नहीं है।
3811. दुख विमोचन के लिए ज्ञान और वैराग्य होना चाहिए। प्रपंच विषय वस्तुओं के पीछे जाकर विषय वस्तुओं को मन में रखकर पूजा अर्चना करनेवाले बंध मोक्ष की कोशिश करना जीवन को व्यर्थ करना ही है। कारण आत्म ज्ञान के लिए मुख्य रूप में विषय वैराग्य और उद्वेग मोक्ष मिलने की इच्छा चाहिए। विषय इच्छाएँ और शारीरिक अभिमान जब ज्ञान की बाधाएँ बनती है, उनको मिटाये बिना मुक्ति चाहने से कोई लाभ नहीं है। विषय वैराग्य अति शक्तिशाली अभ्यास है। विषय वैराग्य होना है तो गुरु के उपदेश के द्वारा, सत्य की खोज के द्वारा जान-समझ लेना है कि सांसारिक विषय नश्वर है, आत्मा अनश्वर है। स्वयं शरीर नहीं है,आत्मा है। इस आत्मज्ञान को बुद्धि में दृढ बना लेना चाहिए। तभी अपने प्राण जैसे सभी जीवों से प्यार करके भेद बुद्धि रहित, राग-द्वेष रहित एकात्म बुद्धि से आत्मा के स्वभाव शांति और आनंद को निरंतर, नित्य रूप में अनुभव कर सकते हैं।
3813. जीवन में सभी प्रकार के दुखों के कारण सबको विदित है मन ही । यथार्थ में वह मन आत्मा से भिन्न नहीं है। अर्थात् हल्की रोशनी में एक रस्सी को साँप सोचकर डरकर दीप जलाकर देखने पर रस्सी को साँप समझने का भ्रम दूर होगा। तभी साँप का भय दूर होगा। वैसे ही आत्मा बने मैं रूपी अखंडबोध में दृष्टित एक भ्रम ही मन है। भ्रम बदलते समय अर्थात् आत्मज्ञान रूपी प्रकाश बोध को छिपाने वाले भ्रम मन के मिटते ही शरीर से खंडित बोध अखंड में बदलेगा। स्वयंभू अखंड बोध को कोई पर्दा नहीं ढकेगी। देखनेवाले सबको एक आत्मा के रूप में एहसास कर सकते हैं। सभी दृश्यों के कारण मन ही है। मन नहीं है तो और कुछ भी नहीं रहेगा। वैसे ही सभी वासनाओं के कारण अहंकार ही है। इसलिए मन और अहंकार के मिट जाने पर आत्मतत्व अर्थात् अखंडबोध अर्थात मैं रूपी सत्य किसी भी प्रकार के पट के बिना चमकेगा। वही अहमात्मा अनादी काल से उज्ज्वलतम परमात्मा बने बोध को अर्थात् उसके अखंड को जो एहसास करता है, वही अखंडबोध बने पूर्ण ब्रह्म है।
3814. जो कोई आत्मज्ञान रूपी पूर्ण पवित्र मार्ग का अनुसरण करता है, वही परमानंद का पात्र बनता है। अंत में वह गुणातीत निर्गुण परब्रह्म ज्ञानप्रकाश परंज्योति परमानंद स्वरूप में खडा रहेगा। वही भगवान है। ईश्वर का स्वभाव परमानंद है। जो अपने को परमात्मा स्वरूप एहसास करते हैं,वे सब परमानंद स्वरूप है। मृगमरीचिका जैसे पंचभूत पिंजडे के शरीर और मन दोनों बोध को छिपा देने से जीव का परमानंद नष्ट हुआ। जिसमें शरीर और मन को मृगमरीचिका जैसे देखने की क्षमता है,वे अति सरलता से शरीर और मन को त्यागकर अपने परमानंद स्वरूप को पुनःप्राप्त करके वैसा ही बन सकता है।
3815. जिसने आत्म तत्व को दृढ रूप में हृदय में एहसास किया है,वही भगवान है। उस भगवान को किसी भी प्रकार का संकल्प नहीं है। वैसे याचना करने के लिए दूसरा कोई न होने से किसी भी प्रकार की इच्छा नहीं है। आत्मा के सिवा दूसरी एक वस्तु किसी भी काल में नहीं है,यह जानना ही आत्मज्ञान होता है। भगवान के दो रूप भाव है, सामान्य रूप है और ब्रह्म रूप है। उदाहरण रूप में शंख चक्र गदा पद्म धारण किये चार भुजोंवाले महा विष्णु स्वरूप है। उसीको सामान्य स्वरूप कहते हैं। उसी समय एकात्मक अनादी अंत रहित अव्यक्त ब्रह्म स्वरूप अर्थात् अर्थात् अखंडबोध स्वरूप है। वही दूसरा परम भाव है।
आत्मज्ञान सीखकर आत्मज्ञानी बने बिना रहने के काल में महाविषिणु के पाद पर अपने को संपूर्ण रूप में समर्पण करके जप करके, कीर्तन गाकर,ध्यान करके,पूजा करके उपासना करनी चाहिए। रोज वैसा करते समय कालांतर में आत्मज्ञान होकर एहसास करना है कि स्वयं शरीर नहीं है, परमात्मा बने आदी अंत रहित अखंडबोध बने ब्रह्म स्वरूप में से न हटकर रहने से ब्रह्म के स्वभाव परमानंद को अपने स्वभाविक रूप से अनुभव करके वैसा ही रह सकता है।
3816. पहले अद्वैतबोध स्थिर खडे रहने के लिए एहसास करना चाहिए कि स्वयं शरीर नहीं है, अपने शरीर को आधार रूप अखंडबोध ही है। अर्थात् शरीर जड है, जड कर्म है,कर्म चलनशील है। वह चलन निश्चलन बोध रूप बने परमात्मा में कभी नहीं होगा। इसलिए शरीर,मन, शरीर देखनेवाला संसार चलन स्वभाव होने से वह रेगिस्तान में दिखाईपडनेवाली मृगमरीचका ही है। उसकी एक वास्तविक स्थिति कभी कहीं हो सकती। यही शास्त्र सत्य है। अर्थात् सबके परम कारण स्वरूप मैं रूपी अखंडबोध नित्य सत्य अनिर्वचनीय शांति और परमानद क साथ
स्थिर खडा रहता है।
3817. जो भिंड को सही रूप में समझ लेता है,उसको अंड को समझने में कोई कठिनाई नहीं होगी। जिसमें आत्मबोध है,उसको यह कहने में कोई कठिनाई न होगी कि हम जिस अंतरिक्षलोक और भूलोक को देखते हैं,वह प्रपंच अपने से ही उतपन्न हुए हैं।कारण आत्म बोध नहीं है तो यह संसार नहीं है।अर्थात् बोध नहीं है,कहने के लिए भी बोध की आवश्यक्ता होती है। इस वात को समझाने के लिए ही एक गुरु की आवश्यक्ता होती है कि आत्मबोध होने से ही लगता है कि सब कुछ है और जो कुछ देखते हैं,सुनते हैं, अनुभव करते हैं, वे अखंडबोध सत्य है। यह समझने के लिए अनेक जन्म लेना पडेगा कि गुरु से मिले बिना स्वयं अखंडबोध है, क्योंकि माया के पर्यवेक्षण के इंद्रजाल प्रपंच की शक्ति अति बलवती है। प्रपंच रूपी भ्रम से साधारण जनता को बाहर आना मुश्किल है। लेकिन विवेकी के लिए आसान है।विवेक रहित मिथ्या संकल्प लेकर जीनेवाला ही दुखी बनता है। लेकिन विवेकी में मिथ्या संकल्प न होने से उसको दुख होने के कोई कारण नहीं है। शास्त्र सत्य अथवा मैं रूपी आत्म बने अखंड बोध ही नित्य सत्य रूप में है। इस शास्त्र सत्य को याद में लाकर मृगमरीचिका जैसे दीख पडनेवाले मिथ्या रूपी इस संसार को तजकर सभी प्रकार की शांति और आनंद निरुपाधिक कर सकता है। अर्थात् अनिर्वचनीय शांति और आनंद को प्राप्त करेगा।
3818. हमें मालूम नहीं है कि संसार का बनना और स्थिर रहना कैसा है? अतः उसे मन से नकारात्मक करने के लिए अर्थात् संसार को मन से हटाने के लिए अर्थात् मन को आत्मा में लय करने के लिए कई प्रकार के प्रयत्न करना पडता है।यह बरह्मांड यह प्रपंच बिना किसी भी प्रकार के कारण से बना है। वह अकारण है। कारण रहित कार्य असत्य ही है। अर्थात् इस संसार के कारण संसार ही है। और कोई कारण नहीं है। ब्रह्म से अर्थात् निश्चलन सर्वव्यापी परमात्मा से दूसरा एक चलन किसी भी काल में हो ही नहीं सकता। इसलिए संसार बनने ब्रह्म किसी भी काल में हो नहीं सकता।लेकिन इस ब्रह्म से ही इस संसार उत्पन्न हुआ-सा दीख पडता है। ब्रह्म से उत्पन्न होकर दीख पडनेवाले प्रपंच भ्रम सिवा भ्रम के और कुछ नहीं है। अर्थात् रेगिस्तान में बनकर दीख पडनेवाले मृगमरीचिका दृश्य के लिए कोई कारण नहीं है। वह मृगमरीचिका कारण रहित कार्य ही है। यह सत्य है कि रेगिस्तान में पानी नहीं है। लेकिन रेगिस्तान में दीख पडनेवाली मृगमरीचिका के कारण मृगमरीचिका ही है। लेकिन रेगिस्तान के बिना
कारण रहित दीख पडनेवाले कार्य रूपी पानी का दृश्य रेगिस्तान होने से ही दीखता है। लेकिन वह दृश्य रेगिस्तान से अन्य कोई नहीं है। रेगिस्तान से अन्य स्वअस्तित्व उसको नहीं है। वह रेगिस्तान का स्वभाव ही है। वैसे ही प्रपंच दृश्य कारण रहित कार्य होने पर भी परमात्म स्वभाव ही भ्रम बने प्रपंच है। लेकिन बोध से न मिले प्रपंच को एक स्व अस्तित्व नहीं है। इसलिए बोध में दीख पडनेवालेप्रपंच भ्रम भी बोध ही है। बोध मात्र ही है।
3819. गृहस्थ जीवन बितानेवाली स्त्री पुरुष किसी भी काल में स्थाई शांति और स्थाई आनंद की प्रतीक्षा बेकार है। वह किसी भी काल में पूरा नहीं होगा। कारण वह भेद बुद्धि बनाकर आत्मा को विस्मरण कराके आत्मानुभूति के मार्ग की बाधा बनेगी। शांति और आनंद आत्मस्वभाव है। यह जानकर भी वे बंधन की भेद बुद्धि द्वारा होनेवाले कामक्रोध,राग-द्वेष आदि आत्म स्वरूप को विस्मरण कराकर मन को निम्न स्थिति की ओर ले आने के लिए ही उपयोग होगा। जो भी जहाँ भी हो ,जैसा भी हो, जिस स्थिति में भी हो, अपनी माया रूपी शरीर और संसार नहीं है।उसके साक्षी रूप है आत्मा। इस बात को बिना कोई संदेह के महसूस कर लेना चाहिए। फिर आत्मा के स्वभाविक परमानंद को निरुपाधिक रूप में स्वयं अनुभव न करके ,अपने को स्वयं आत्मा के अनुभव जो नहीं करता,उसको कभी शांति और आनंद स्वप्न में भी नहीं मिलेगा।
3820. जो कोई आत्मबोध से एक मिनट भी तैलधारा जैसे निश्चल रहता है, उसको सुख मिलेगा।
3821.एक बच्चा भूमि में जन्म लेने तक मन उसकी आत्मा में लगा रहता है।
भूलोक में आने के बाद ही उस बच्चे के मन को माता चूमकर,दूध देकर, उसको उसके आत्मबोध से शारीरिक बोध को ले आता है। इसीलिए आत्मबोध के साथ जन्म लेनेवाले बच्चे दूसरों के स्पर्श करने की अनुमति न देंगे।आत्मबोध रहित जीव को उपयोग करके ही उसके माता-पिता उनकी इच्छाओं को पूर्ण कर लेते हैं। वह उनके अहंकार को संतुष्ट करता है। इसलिए जो बच्चे माता-पिता की बातें न मानकर शरीर और संसार को जानने और समझनेवाले विवेकी ही महान बनते हैं। जिनमें आत्मविचार करने की बुद्धि नहीं होती और प्रपंच विचार करते हैं,वे विचार उनको अंधकार में ले जाकर मृत्यु का पात्र बना देंगे।लेकिन आत्म को मात्र मुख्यत्व देकर सत्य को स्वीकार करके असत्य को त्यागनेवाले बच्चे ही ज्ञानी और परमहंस बनकर दुखी लोगों को शांति और आनंद देते हैं। वैसे लोग ही संसार की भलाई करेंगे। मिथ्या संसार की सांसारिक चिंतन करनेवाले स्वयं को और दूसरों को कोई कलयाण कार्य कर नहीं सकते। जो सोचते हैं कि आत्मबोध रहित संसार को सीधे करना चाहिए,वह मृगमरीचिका के समान बेकार ही है। पंचेंद्रियों को संयम करके ही योगी एकांत जीवन जीते हैं।
3822. स्वर्ग में देवेंद्र सुधबुध खोकर विषय भोगों में रम जाने से देवेंद्र को उन बुरी आदतों से छुडाने के लिए उसके मन को आत्मोन्मुख करने के लिए ही त्रिदेव तपस्वी असुरों को उनके मन चाहा वर देते थे। लेकिन वर प्राप्त करने के बाद असुर लोग अहंकार वश ईश्वर को भूलकर देवलोक जाकर देवेंद्र को सिंहासन से निकाल देते थे। वे नहीं जानते थे कि वर में उनका नाश छिपा रहते थे। देवेंद्र पद की आपत्ति के आने के बाद ही विवेक होता है कि वे भगवान को भूल गये हैं।देवेंद्र तपस्या करके पुनःईश्वर विचार करने पर असुरों का नाश करके पुनः सिंहासन पर बैठते थे।ऐसे ही सांसारिक राजनैतिक संघर्ष अनादी काल से चलते रहते हैं।मैं रूपी अखंडबोध में अपनी शक्ति मनोमाया अकारण आकर बोध को छिपाकर दिखानेवाले मनोविलास ही यह प्रपंच है। इस प्रपंच में ही काल,देश,वस्तु आदि अनुभव जन्म-मृत्यु सब कुछ चलता रहता है। ये सब मन का एक इंद्रजाल प्रकटीकरण मात्र है। अर्थात् एक अल्पकाल में अनेक काल जीने के स्वप्न अनुभव जैसे ही अज्ञान निद्रा इस जागृत अवस्था में जन्म लेकर जीनेवाले आयु, अनुभव, वस्तुएँ ,जीव आदि को बनाकर दिखाना मन का तंत्र है। वह इस प्रपंच बोध का दृश्य मात्र है। अर्थात् यह प्रपंच मन से भिन्न नहीं है। मन ही संसार के रूप में चमकता है। मैं है को अनुभव करके स्वयं बने अखंडबोध स्वरूप की परमात्म शक्ति ही यह मन है। स्वयंभू अखंड बोध मात्र ही एकात्मक है, नित्य सत्य रूप में स्थिर खडा रहता है। उनमें दीख पडनेवाले सभी नाम रूप उसके कारण बने मन रेगिस्तान की मृगमरीचिका जैसे भ्रम के सिवा सत्य नहीं है।