भगवद गीता -5
जिस में इच्छा नहीं है,वही शांति प्राप्त दशा प्राप्त करता है।जो सभी सुखों को तजकर ईश्वरीय स्थिति पर
स्थित रहता है ,वह किसी मायजाल में नहीं फंसता।जीवन की अंतिम घडी में भी इस निर्मोह -दशा पर रहें तो
वह मुक्ति पाता है। इच्छारहित दशा से बढ़कर कोई संपत्ति नहीं है।
संसार में दो प्रकार की निष्ठाएं है।--.1.ज्ञान-योग 2.कर्मयोग।
संन्यास ग्रहण करने से ही कोई मुक्ति प्राप्त नहीं कर सकता।बिना कर्म किये कोई नहीं रह सकता।
प्राकृतिक गुण कोई न कोई कर्म में लगा देता ही है।
कर्म-कौशल से ही मनुष्य यश और सम्मान प्राप्त करता है।
कर्मेन्द्रिय को काबू में रखकर,इन्द्रिय सुखों की मोह को मन में स्थान देनेवाला मूढ आ त्मा है।
वह मिथ्यावादी है।
पंचेंद्रियों को वश में रखकर कर्मेन्द्रियों के द्वारा कर्म-योग में रहनेवाला श्रेष्ठ व्यक्ति है।
मनुष्य के भाग्य में कोई न कोई कर्म लिखा गया है।
उस कर्म का करना कर्त्तव्य है।अनासक्त रहकर कर्म करना ही
सार्थक है।अतः सविलम्ब अपने कर्म में विधिवत लग जाओ।
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