अतिथि सत्कार--- संत तिरुवल्लुवर
1.अर्थ कमाना अतिथि सत्कार के लिए है.धन जोड़कर
मेहमानों को खाना खिलाने में उनकी सेवा करने में ही जीवन की सार्थकता है.
२.अतिथियों के आने पर उनके खान-पान के बिना विचारे ,उनको खाने का आग्रह न करके खुद खाना मनुष्यता नहीं है.भले ही वह खाना अमूल्य हो,वह अमृत हो, फिर भी अकेले खाना मनुष्य -प्रेम नहीं है.
३.उसका जीवन हमेशा सुखी रहेगा,दुखी कभी नहीं बनेगा,जो अतिथि की प्रतीक्षा करता है और अतिथि के आने पर सत्कार करता है.
४.जो मेहमान किसी मांग पर हमारे घर आते हैं ,उनका आदरसत्कार करनेवालों के घर में लक्ष्मी का वास होगा.हमेशा प्रसन्नता होगी.
५.अपने घर आने वाले अतिथियों को खिला-पिलाकर बाकी जो बचा है,वही काफी है, यों सोचनेवाले गुणी के खेत में बिना बीज के ही फसल पैदा होंगे.
५.वे ही देवों के प्यार के पात्र बनेंगे,जो आये हुए अतिथि का सत्कार करके सादर उनके जाने के बाद आगे आनेवाले अतिथि के इंतजार में आँखे फैलाकर बैठते हैं.
६.अतिथि को स्वादिष्ट भोज देने में या अधिक भोजन खिलाने में कोई बड़प्पन नहीं है.अतिथि भोजन का बड़प्पन खिलानेवाले के मन से सम्बंधित है.
७.अतिथियों को,रिश्तेदारों को उचित आदर-सत्कार न करके धन जोड़नेवाले ,अपने धन खो जाने के बाद पछतायेंगे क़ि हम अपने नाते-रिश्ते -अतिथि से प्यार भरे व्यवहार न करके बड़े बरबाद उठाये है
.
९.धन-दौलत पाकर भी दूसरों की सेवा में न लगने का गुण मानसिक दरिद्रता के कारण होता है.यह उनकी बेवकूफी के कारण है.
१०.भोज के समय मुरझाये हुए फूल के सामान चेहरा
दिखाना मेजबान और मेहमान दोनों को शोभा नहीं देती.
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