Monday, August 6, 2012

भगवद गीता -2


भगवद गीता -2

जब-जब धर्म का नाश होता है,

 अधर्म अपनी चरम सीमा तक पहुँचता है,

    तब - तब  ईश्वर  का अवतार होता है।

  हरयुग में भगवान अच्छों की रक्षा करने और बुरों का वध या नाश करने  जन्म लेते हैं।

ईश्वरीय  शक्ति  और धर्म कार्य पर प्रीती और श्रद्धा रखने वालों को कभी हानि नहीं होगी।

चाह,भय ,क्रोध आदि बुरे गुण छोड़कर,जो भगवान के चरण में आश्रय लेते हैं,
 वे ईश्वरीय स्वभाव के हो जाते हैं।

चार वर्ण  गुण और कर्म के आधार पर हैं।

अज्ञानता संदेह का मूल है।

ज्ञान संदेह को जड़-मूल नष्ट कर देता है।

ज्ञान रुपी तलवार से अज्ञानता मिटाकर योग-स्थिति  प्राप्त कर लो।

संन्यास कर्म-योग दोनों श्रेष्ठ फल-प्रद है।

इनमें कर-रहित योग से कर्म योग श्रेष्ठ है।

दुश्मनी और चाह जिसमें नहीं है,वही सन्यासी है।

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