नटराज हमारे गुरु
त्यागी स्वतत्रता सेनानी अपनी पत्रिका ज्ञान्भानु में लिखे निबंध.
अप्रैल १९१४ ई o .(तमिल से अनूदित)
नटराज का अर्थ है नृत्य मंच का नायक. इसका मतलब है यह संसार एक
नाटक मंच है.इस नाटक-मंच का नायक या
मालिक
सर्वव्यापक आत्म -वस्तु है. इस आत्मा वस्तु की अखंड शक्ति के कारण यह संसार सत्य -सा जीवित सा लगता है.सभी में यह आत्मा वास्तु नहीं तो यह संसार एक निकम्मा जड़ -वस्तु मात्र रहेगा .
मनुष्य के गुरु आत्म वस्तु नटराज ही गुरु है.
गुरु दो प्रकार के होते हैं .प्रत्यक्ष गुरु.अप्रत्यक्ष गुरु.
प्रत्यक्ष गुरु ही अपने शिष्य को उपदेश देकर सत्य-मार्ग पर
ले जाते हैं.सामान्य रूप में ऐसे लोगों को ही गुरु कहते हैं.
लेकिन सारे उपदेश अंतर्मन से ही होना चाहिए .जग में जगदीश्वर ही अपने अंतर से विकास का मार्ग दिखाना चाहिए. दृष्टांत के रूप में पौधे अंतर से ही बढ़ते हैं. खाद -पानी आदि उनके बढ़ने के अनुकूल साधन हैं.
ऐसे ही मनको भी बाहरी उपदेशों को अनुकूल साधन बनाकर बढना चाहिए.नटराज ही प्रत्यक्ष पूजनीय गुरु है.
No comments:
Post a Comment