Sunday, March 3, 2013

सूरदास 

हिंदी  साहित्य  गगन के सूर्य  है  सूरदास .उन्होंने  अपने को कुदृष्टि  से बचने के लिए  अँधा बना लिया . कुछ लोगों  का  कहना है कि  सूरदास जन्मांध थे। 

सूरदास के  गुरु श्री वल्लभाचार्य थे. सूरदास अपने गुरु के अष्ट छाप कवियों में एक  थे. वे अपने गुरु की प्रेरणा से कृष्ण के अनन्य भक्त बने।कृष्ण लीलाओं का वर्णन व्रज भाषा में अत्यंत मधुर शैली में किया .
उनकी रचनाओं में 'सूरसागर" अत्यंत प्रसिद्ध  है. राधा-कृष्ण के प्रेम में मानव ह्रदय का सूक्ष्म भाव मिलते हैं .पाठक श्री कृष्ण के हँसने  के साथ हँसता है,रोने के साथ रोता है और उनकी शृंगारिक चेष्टाओं  में रागात्मिकता वृत्ति का अनुभव करता है. 
उनके रचित ग्रन्थ २५ से ज्यादा है. उनके लाखों पद हैं ;उनके अन्य उपलब्ध  ग्रन्थ हैं -साहिय लहरी,सूर सारावली .उनके ग्रंथों में वात्सल्य रस और शृंगार रस प्रधान  है।
उनकी शैली सुबोध और सरल है. उनका मन जहाज के पक्षी के समान  केवल श्री कृष्ण-भक्ति को ही चाहता है. 
उनका जन्म सं०१५४० हुआ  और मृत्यु सं .१६२० हुई .
मृत्यु के समय उनके मुख से निकला था--"चकई री,चली चरण-सरोवर,जहँ  नहिं  प्रेम-वियोग".
"सूर-सूर,तुलसी शशी ,उडुगन केशवदास। अब के कवी खद्योत सम ,जहँ -तहँ  करहिं  प्रकास।।"--यह पद हिंदी संसार में बहुत प्रसिद्ध  है।

सन्दर्भ सहित व्याख्या-
सूर-सौरभ-
१. चरण-----पाई।

सन्दर्भ:--यह पद सूरदास का है। इसमें कवी ने श्री कृष्ण की महिमा गाई है।

व्याख्या :---सूरदास श्री कृष्ण-भक्ति का महत्त्व यों बताते हैं:-श्री कृष्ण की कृपा से लंगड़ा पहाड़ पर चढ़ सकता है;अँधा सब कुछ देख सकता है;बहरा सुन सकता है;गूंगा बोल सकता है;गरीब राजा बन सकता है।अतः सूरदास श्री कृष्ण के चरण-कमल को बार-बार वंदना करते हैं;उनके कृष्ण करुणामूर्ती है;करुणा  से पूर्ण है।
विशेष :--संसार के दीन -दुखी लोगों के शरण-दाता  ईश्वर ही है।ईश्वर की शक्ति अतुलनीय और वर्णनातीत है।


२.  अबिगत----------पद गावै।।

सन्दर्भ:--  सूरदास इस पद में सगुण -भक्ति के ब्रह्मानंद का वर्णन करते हैं।

व्याख्या:--ईश्वर भक्ति और प्रार्थना-भजन से प्राप्त आनंद का प्रकट करना अत्यंत कठिन है।वह तो अनुभव-जन्य  सुख है। उदहारण के रूप में कवी सूर बताते है कि  गूंगा मीठे फल का स्वाद महसूस कर सकता है;पर उसका प्रकट कर नहीं सकता। वैसे ही भगवान के दर्शन और भजन जो संतोष्प्रद  है,उस आत्म-संतोष व्यक्त नहीं कर सकते। सगुण  भक्ति निर्गुण भक्ति की तुलना में सर्वश्रेष्ठ  है;आनंदप्रद है। भक्ति को निर्गुण में रूप नहीं;रंग नहीं;आकार  नहीं ;ऐसे भक्ति-मार्ग के पीछे दौड़ना बेवकूफी है।अतः सूरदास सगुण-भक्ति को अपनाकर  सगुण  ब्रह्म के पद गाते हैं।
विशेष:--निर्गुण से सगुण  का महत्त्व बताया गया है।

३. मेरो ------दुहावै.

सन्दर्भ:- सूरदास इस पद में कहते हैं कि इधर-उधर भटकने के बाद भी उनका मन सिर्फ भगवान श्री कृष्ण को ही मानता है।

व्याख्या:-सूरदास कहते हैं कि  श्री कृष्ण की भक्ति में ही उन का मन लगता है। समुद्र के बीच जहाज में जो पक्षी रहता है,वह इधर-उधर उड़ने के बाद समुद्र के जहाज को ही वापस आता है। वैसे ही कवी का मन अन्य  देवी-देवतावों के  पीछे भटककर  फिर भगवान श्री कृष्ण का ही समर्थन करता है। पवित्र गंगा -जल को छोड़कर प्यास बुझाने अति मूढ  ही कुआ खोदने लगेगा। भ्रमर कमल का रस रहते कडुवे फोल का रस नहीं चखता।कामधेनु के रहते कोई भी बकरी का दूध नहीं दुहता।
विशेष: कवी सूरदास कई उदाहरणों के द्वारा अपने आराध्य देव की महिमा गाते है।









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